________________
सर्वतोमुखी आत्मविकास का उपाय : तप ३. गाँधीजी ने अपनी 'सप्त-महावत' नामक पुस्तक में 'अस्वाद' व्रत को महत्व पूर्ण स्थान दिया है। उन्होंने लिखा है कि इस व्रत के पालन से मनोनिग्रह शुद्ध चिन्तन एवं ब्रह्मचर्य पालन में सफलता मिलती है।
धर्माचरण करने के लिए अथवा सेवा, परोपकार आदि करने । अथवा दूसरों की रक्षा करने में जो कष्ट सहना पड़ता है, या अपने किसं निकट सम्बन्धी का वियोग होने पर अभाव पीड़ित होकर या इष्टवियोग कारण असहाय होकर कष्टमय-पीड़ामय जिन्दगी धर्मपालन करते या शील पालन करते हुए बिताना पड़ता है, वह कायक्लेश नामक तप है। ..
इसी प्रकार पांचों इन्द्रियों को विषय-वासना से हटा कर एक माः आत्मा की सेवा में, आत्मचिन्तन में एकाग्र या तल्लीन करना; विषयों । प्रति आसक्ति, मोह या तष्णा से हटा देना प्रतिसंलीनता नामक तप है।
इस प्रकार तन, मन और इन्द्रियों को अशुभ-अशुद्ध विपरीत मार्ग रे निवृत्त करके, शुद्ध मार्ग में प्रवृत्त कर देना उसके लिए तन-मन को साधना कष्ट सहना, तपाना षड्विध बाह्य तप है । आभ्यन्तर तप से मन और आत्मा की अशुद्धि का निवारण
इसी प्रकार छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है, जो मन और आत्म की शुद्धि, परिष्कार और क्षमता-वृद्धि करने हेतू है। यद्यपि आत्मा अप आप में शुद्ध है, किन्तु रागादि विकारों के कारण कर्ममल से आवृत होने में कारण वह अशुद्ध हो जाती है। रागादि विकारों का जनक मन है, जं आत्मा का प्रतिनिधि होकर काम करता है, आत्मा उसके बुरे चिन्तन, बु विचार आदि, तृष्णा, लोभ, मोह आदि का साक्षी एवं समर्थक बन जाती है इस कारण वह भी कर्ममल से लिप्त हो जाती है। उसी का दमन करने आत्माभिमुखी बनाने तथा आत्मा पर लगे हुए पाप-दोषों का शोधन करने के लिए तथा आत्मा को अध्यात्म साधना के लिए सशक्त बनाने हेतु प्राय श्चित आदि छह आभ्यन्तर तप हैं। तपःसाधना से मन को चंचलता और सुखलिप्सा का निवारण
___ इच्छानिरोध को जैन दर्शन में 'तप' कहा गया है। इच्छा की उत्पत्ति मन से होती है। तपःसाधना द्वारा बाहर में भटकते हुए, परभावों में बहरे हुए मन को स्वभाव में लाया तथा आत्माभिमुखी बनाया जाता है।
मन की दो मुख्य विशेषताएं सर्वविदित हैं-(१) चंचलता और (२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org