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३८ तमसो मा ज्योतिर्गमय चिन्ता, व्यग्रता, अहंकार, उदासी, ईर्ष्या, उद्विग्नता, भय, द्वष आदि विकारों के कारण नाना व्याधियाँ अड्डा जमा लेती हैं। ऐसी स्थिति में तपस्या हो तन और मन के उन रोगों को दूर करके दोनों को शुद्ध बना डालती है । तन और मन के शुद्ध होने पर आत्मा की परिशुद्धि होने में देर नहीं लगती। बाह्यतप से तन और मन का शोधन एवं निग्रह
. जैन दर्शन में तपस्या के दो प्रकार बताए गए हैं-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस-परित्याग एवं कायक्लेश से प्रायः तन की, एवं प्रतिसंलोनता अथवा विविक्त शय्यासन से मन की शुद्धि होती है। उपवास, बेला, तेला आदि तपस्या के लाभ सर्वविदित हैं। पेट को विश्राम देने से उसमें जमा हआ मल-निष्कासन होता है, अपच दूर होता है तथा थकान दूर होने से पाचन-क्रिया में तीव्रता आती है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में रोग-निवृत्ति का प्रधान उपाय उपवास आदि तप को माना है । ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग (अस्वाद-व्रत) आदि से भी शरीर के अंदर जमे हए विकार दूर होकर उसकी शुद्धि होती है। उदरशोधन के अतिरिक्त उपवास आदि का विशेष लाभ यह है कि उससे मनोविकारों का भी शमन होने लगता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में 'लंघनं परमौषधम्'-लंघन को परम औषध कहा गया है ।
स्वाद के लोभ में मनुष्य अधिक भोजन पेट में डाल लेता है । उससे अपच, गैस, अतिसार आदि नाना रोग पैदा हो जाते हैं । अतः रसपरित्याग (अस्वाद) तप बताया गया है, जिससे स्वाद पर काबू पाया जा सके । जैन धर्म में इसके लिए आयम्बिल (आचाम्ल) एवं नीवी (निर्विकृतिक) तप बताया गया है । आयम्बिल में किसी प्रकार के घी, तेल, दूध, दही, मोठा आदि विगइयों (विकृतिकों) (स्निग्ध पदार्थों) का तथा मिर्च-मसाले नमक आदि का सेवन नहीं किया जाता । निविग्गई में किसी प्रकार की विग्गई का सेवन नहीं किया जाता । कई लोग सरस स्वादिष्ट आहार लूंस-ठूस कर खा लेते हैं, कई लोग स्वाद के चक्कर में पड़ कर नाना प्रकार के सरस स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों का सेवन करते रहते हैं, अथवा दिन भर कुछ न कुछ खाते रहते हैं। उनके लिए वृत्ति-सक्षेप तप बताया गया है। श्वेताम्बर जैनों में चैत्र सुदी तथा आसोज सुदी में आयम्बिल की ओली तप के साथ नवपद-आराधना करने का विधान है। उसका उद्देश्य स्वादेन्द्रिय पर नियंत्रण और मनोबल बढ़ाकर गहराई से आत्मचिन्तन करना है। महात्मा
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