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आत्मा का उत्थान एवं पतन : अपने हाथों में ३५ होता है कि आन्तरिक प्रखरता के बल पर कई व्यक्तियों ने अभावग्रस्त एवं विपरीत परिस्थितियों को तथा अनेक अवरोधों को चीरते हुए आत्मिक प्रगति के पथ प्रशस्त किये हैं तथा आध्यात्मिक उन्नति के उच्च शिखर तक पहँचे हैं। इसके विपरीत हर प्रकार की सुविधा तथा अनुकूल परिस्थिति होते हुए भी कई व्यक्ति ऊपर उठने की बात तो दूर, उलटे पतन के गर्त में नीचे गिरते चले गए हैं। आत्महीनता, शारीरिक असमर्थता बाधक नहीं
- जो लोग आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित हैं, वे न तो अपनी दर्बलताओं को समझने का और न उन्हें दूर करने का प्रयास करते हैं । गहराई से आत्मनिरीक्षण करना, उनसे नहीं बन पड़ता। अतः वे सामने उपस्थित प्रतिकूलताओं का सारा दोष किन्हीं अन्य व्यक्तियों या परिस्थितियों पर थोप कर जी हलका करते हैं। कोई और नहीं सूझता तो वे भाग्य को, दैवी प्रकोप को, ग्रह-नक्षत्रों को, समय की विपरीतता को कोसने लगते हैं। साथ ही, वे जिस-तिस की कृपा प्राप्त करने के लिए उसके सामने दीनता और चापलुसी से भरी याचना करते फिरते हैं। अपने पुरुषार्थ पर उन्हें विश्वास नहीं होता । कस्तूरी का हिरन सुगन्ध की तलाश में चारों ओर दौड़ता है, पर उसका समाधान तभी होता है, जब उसे अपनी ही नाभि में सुगन्ध होने की बात समझ में आ जाती है। संसार में बहुत-से उपादेय एवं आत्मविकास में सहायक शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श हैं, वे प्रेरक भी हैं, आकर्षक भी, किन्तु उनका लाभ उसी को मिल सकता है, जिसकी अपनी ग्रहण शक्ति ठीक हो, अर्थात्-कान, आंख, जीभ, नाक आदि सही हों।
___ शारीरिक असमर्थता व्यक्ति के लिए इतनी दुःखजनक या धातक नहीं होती, जितनी कि आन्तरिक दुर्बलता। कितने ही रुग्ण, अपंग एवं दुर्बल व्यक्ति आन्तरिक प्रखरता के कारण इतने महान् कार्य कर सके हैं, जितने समर्थ एवं सशक्त शरीर वाले नहीं कर सके । इसलिए यह बहाना व्यर्थ है कि हम शारीरिक असमर्थता के कारण आत्मोद्धार कैसे करें ? वास्तव में, शरीर को समर्थता-असमर्थता से आत्मिक उत्थान में कोई अन्तर नहीं पड़ता, साधनों के न्यूनाधिक होने पर भी कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । वास्तविक अन्तर तो मनःस्थिति का है, वही आत्मा को महान् और तुच्छ बनाती है । क्षुद्र स्वार्थ, अहंकार, अज्ञान, अविवेक, कुण्ठा, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से ग्रस्त मनःस्थिति वाला व्यक्ति अपने ही आत्मविकास के चरणों पर कुल्हाड़ी मारता है।
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