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________________ ३० तमसो मा ज्योतिर्गमय "God helps those, who help themselves' परमात्मा उसी की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं । मन के लूले लंगड़े एवं अपनी शक्तियों को छिपा कर रखने वाले व्यक्ति की कोई भी सहायता नहीं कर सकता। अपने उत्थान-पतन की जिम्मेदारी बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं अपनी आत्मा का उत्थान-पतन बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं, किन्तु अपनी स्वयं को शक्ति, स्फूर्ति, प्रतिभा एवं योग्यता पर है । अतः अपने उत्थान-पतन की जिम्मेदारी बाह्य परिस्थितियों पर मत डालिये। श्रमण संस्कृति का मूल स्वर __ श्रमण संस्कृति का मूल स्वर यही है कि मनुष्य अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य (शक्ति), पराक्रम और पुरुषार्थ के सहारे-आत्मोत्थान के लिए स्वयं श्रम से, अपने तप, त्याग और संयम के बल पर आगे बढ़े, वह किसी देवी देव, या किसी चक्रवर्ती या धनाढ्य आदि की सहायता की अपेक्षा न रखे। श्रमण शिरोमणि भगवान् महावीर के जीवन पर अनेक कठोर से कठोर उपसर्ग (कष्ट एवं संकट) आ रहे थे और भविष्य में आने वाले थे। देवराज इन्द्र उनका परम भक्त था। उसने भगवान् से निवेदन किया"भगवन् ! आप पर घोर से घोर संकट (उपसर्ग) आने वाले हैं । अज्ञानी लोग आपके व्यक्तित्व को नहीं जानकर आपको भयंकर कष्ट देंगे। ऐसी स्थिति में मैं आपकी सेवा में रहूँ, मैं उन अज्ञानी लोगों को समझाकर आपके कष्ट दूर करने का प्रयत्न करूंगा।" महाश्रमण भगवान महावीर ने इन्द्र से कहा- "इन्द्र ! ऐसा नहीं हो सकता । अर्हन्त जिनेन्द्र अपने ही बल पर आगे बढ़ते हैं और उपसर्गों को समभाव से सहकर कर्मक्षय करते हैं। _ 'स्व-वीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् ।' "जिनेन्द्र अपने ही बल-वीर्य के आधार पर परम पद को प्राप्त करते हैं।" और सचमुच श्रमण भगवान् महावीर ने अपने बलबूते पर उपसर्गों, संकटों और कष्टों का सामना किया। अनार्य देश के विचरण के समय प्रतिकूल परिस्थितियों के होते हुए भी वे आत्मविश्वासपूर्वक डटे रहे, समभावपूर्वक सब कुछ सहा। फलतः उन्होंने पूर्वकृत घोर कर्मों का क्षय कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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