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________________ आत्मा का उत्थान एवं पतन : अपने हाथों में २६ से इनसे सम्बद्ध हैं। मैं इनके साथ ममता और आसक्ति के बन्धनों को तोड़ दूं तो मैं स्वयं परमात्मा के निकट पहुँच सकता हूँ।" इस प्रकार चिन्तन करने पर स्पष्ट प्रतीत होगा कि महाशक्ति का भण्डार तो अपने अन्दर पहले से ही पड़ा है, केवल उसे झकझोरने की आवश्यकता है। शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों से आत्मा को भिन्न समझने का भेदविज्ञान मन में दृढ़ हो जाने पर मनुष्य चाहे जो बन सकता है, आध्यात्मिकता के उच्च शिखर पर अपने आपको पहुचा सकता है । संसार ने नहीं बाँधा स्वयं संसार से बंधा है जो व्यक्ति यह समझता है कि संसार ने मुझे बाँध रखा है, वह भ्रम में है। संसार तो अपनी ही कामनाओं का जाल है। जैसे मकड़ी अपना जाल स्वयं बुनती है और स्वयं ही उसमें फंसती है, वैसे ही मैंने संसार का यह जाल स्वयं गथा है, स्वयं ही मैं इसके जाल में फंसा हूँ। मैं चाहें तो स्वयं ही इस संसार के जाल को तोड़कर बन्धनमुक्त हो सकता हूँ। ___अनासक्त कर्मयोगी जनक की सभा में एक प्रश्न पूछा गया था कि "संसार ने हमें बाँध रखा है, या हमने संसार को ?" तभी सारी सभा को उद्बोधन देने के लिए आत्मार्थी अष्टावक्र एक खंभे को पकड़ कर चिल्लाने लगे कि-"तात ! इस खंभे ने मुझे पकड़ रखा है, मुझे इससे छुड़ाओ।" इसे देख-सुन कर सारी सभा हँसने लगी। महाराजा भी मुस्कराने लगे। उन्होंने कहा-वत्स ! यह जड़ खंभा तुम्हें कैसे पकड़ या बाँध सकता है ? इससे हाथ हटा लो, बस, तुम इससे मुक्त हो।" अष्टावक्र जी ने मुस्कराते हुए कहा-“अब तो आप समझ गये होंगे कि ससार ने हमें बाँधा या पकड़ा नहीं है । हमने ही संसार को पकड़ा है।" अगर हम इस तथ्य को हृदयंगम कर लें तो हम स्वयं ही अपने भाग्य को बदल सकते हैं। परमुखापेक्षी व्यक्ति द्वारा अपना उद्धार कठिन आत्म-विश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मचिन्तन, आत्मपरिष्कार और आत्मनिर्माण, ये पाँचों बातें साधक के जीवन में उतर जायें तो वह अपने आप का उद्धार स्वयं कर सकता है। जो पराधीन परमुखापेक्षी एवं पराबलम्बी बन कर दूसरों से सहायता, शक्ति या वरदान की अपेक्षा रखता है, वह स्वप्न में भी अपना उद्धार नहीं कर सकता। अंग्रेजी साहित्य की एक सूक्ति इसी तथ्य का समर्थन करती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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