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________________ २८ तमसो मा ज्योतिर्गमय भगवान महावीर ने तो अनुभवपूर्वक स्पष्ट कहा था___अप्पा चेव दमेयवो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥ भव्य जीवो! आत्मा का ही दमन करो, आत्मदमन ही दुष्कर है, जो आत्मा का दमन कर लेता है वह इहलोक परलोक में सर्वत्र सुखी होता है । दुर्भाग्य से वर्तमान युग का मानव प्रायः बाहर की वस्तुओं का मूल्य और उपयोग तो जानता है, परन्तु अपने सामर्थ्य को उभारने या उसका सदुपयोग करने की जानकारी से प्रायः वंचित ही रहता है । अपने उद्धार के लिए स्वयं चलना होगा गीताकार की पूर्वोक्त उद्घोषणा के अनुसार अपना उद्धार अपने से ही संभव है। उसे दूसरा कोई करने वाला नहीं है। अपने उत्थान और पतन का सारा उत्तरदायित्व अपने ही ऊपर है। इसमें श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग, उपदेश और सहयोग उसकी सहायता करे यह बात दूसरी है, परन्तु अपना कल्याण करने के लिए हमें स्वयं आगे बढ़ना होगा। महापुरुषों की देशना और प्रेरणा उसका मार्गदर्शन तो कर सकती हैं, परन्तु उस मार्ग पर चलना उसे ही होगा, उसे स्वयं ही उस मार्ग को अपने कदमों से तय करना होगा । भगवान महावीर के पूर्वोक्त मार्गदर्शन के अनुसार इस लोक और परलोक के स्थायी सुख-आत्मिक सुख की कुंजी अपने ही हाथ में है, बशर्ते कि ब्यक्ति अपनी आत्मा का, बिना किसी के दवाब, भय या आतंक से, स्वेच्छा से दमन नियन्त्रण कर ले। दूसरे के कन्धों पर बैठ कर कोई भी व्यक्ति इहलोक और परलोक का सुख नहीं प्राप्त कर सकता। मृत्यु का स्वेच्छा से हँसते-हँसते आलिंगन किये बिना, अथवा धर्माचरण करते समय आने वाले कष्टों एवं दुःखों को समभाव से सहे बिना, मोक्ष का सुख तो दूर रहा, स्वर्ग का सूख भी नहीं प्राप्त किया जा सकता। आत्मोद्धार के लिए प्रबल आत्मविश्वास आवश्यक "मैं सत, चित्त और आनन्द स्वरूप हैं। मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा है, मेरे पास ज्ञानादि अनन्त आत्मिक शक्तियों का भण्डार है। मैं शरीर और शरीर से सम्बन्धित समस्त जड़-चेतन (सजीव-निर्जीव) पदार्थों से पर हैं। मैं भ्रमवश शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों को अपने मानता था, उनसे बँधा हुआ, लिपटा हुआ अपने आपको समझता था, किन्तु वास्तव में मैं इन सबसे पृथक् हूँ । जब तक यह जीवन है, तब तक केवल संयोग-संबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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