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________________ आत्मा का उत्थान एवं पतन: अपने हाथों में २७ बोध होने पर ही मनुष्य आत्मा के उत्थान या उद्धार की दिशा में अग्रसर हो सकता है, परन्तु जहाँ आत्मा का ही बोध न हो, जो शरीर के लालनपालन, शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं की ही सुरक्षा, ममता करने एवं उनको ही आत्मीय मानने की वृत्ति में पड़ा हो, जो शरीर को ही आत्मा मानते हैं तथा शरीर के भस्म हो जाने के साथ आत्मा का अन्त मानते हैं, वे तो खाने पीने और ऐश-आराम करने को ही जिंदगी का उत्थान मानते हैं। भला आत्मा का उत्थान अज्ञान, मोह, राग, आसक्ति एवं ईर्ष्या-द्व ेष से कैसे हो सकता है ? इसीलिए उपनिषद् के ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैंआत्मा वारे श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यश्च । " मानव ! आत्मा के विषय में ही सुनो, जानो, विचारो और गहराई से समझो । " उद्बोधन पर विचार करके जो व्यक्ति आत्मा का स्वरूप समझकर उसके उत्थान के लिए प्रयत्न करता है, वही मानव आत्मा को बन्धु बनाता है, इसके विपरीत जो व्यक्ति आत्मा के गुणों को तिलांजलि देकर मद्य, मांस, व्यभिचार, द्य ूत आदि कुव्यसनों में पड़कर स्वयं को सुखी बनाने का प्रयत्न करता है, वह गर्मागर्म शीशा मुँह में उड़ेल कर आनन्द मनाने की-सी बालचेष्टा करता है । आत्मा को परभावों से हटाकर स्वभाव में लगाओ आज जितना ध्यान धन कमाने, सन्तान पैदा करने, शरीर सजानेसंवारने, खाने-पीने तथा वैभव प्रदर्शन का ताना-बाना बुनने पर दिया जाता है, उतना यदि आत्मचिंतन, आत्मसुधार, आत्म-निर्माण और आत्मपरिष्कार की प्रक्रिया पर दिया जा सके तो अवश्य ही आत्मशक्ति की मात्रा अनेक गुनी बढ़ सकती है | अपनी प्रसुप्त शक्तियों को जगाने और बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित हो जाए तथा अपने आपका दमन करके तन-मन-वचन को, आलस्य एवं प्रमाद को त्यागकर तत्परता से जुट पड़े तो उसे प्रतीत हो जाएगा कि उसकी आत्मा में प्रचुर बल, वीर्य ओर पुरुषार्थ आ गया है । यदि बिखराव की बाल-चपलता को त्यागकर अपने समस्त बल को एकाग्र भाव से आत्मविकास में लगा दिया जाए तो कठिनतम कार्य भी अनायास ही हो जाएँगे । फिर तो दुर्लभ प्रतीत होने वाला आत्मिक सुख उसके जीवन में यहाँ और वहाँ अठखेलियाँ करने लगेगा | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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