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२६ तमसो मा ज्योतिर्गमय आत्मा ही जब सुप्रतिष्ठित होता है तो वह अपना मित्र हो जाता है और दुष्प्रतिष्ठित होने पर शत्रु । यही बात दूसरे शब्दों में भगवद्गीता में कही गई है
"उद्धरेद्धात्मनात्मानमात्मानमवसादयेत् ।।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥" अपना उद्धार स्वयं (आत्मा से) करो; अपने आपको गिराओ मत । आत्मा ही आत्मा का बन्धु है, और आत्मा ही आत्मा का शत्रु ।
जब आत्मा श्रेय-पथ को छोड़कर प्रेय के लुभावने एवं मनमोहक मार्ग पर चल पड़ता है, तब वह अपना ही पतन करता है और जब वह संसार की विषय-वासनाओं और रागद्वोष, अज्ञान, मोह, काम-क्रोधादि विकारों के विषम मार्ग को छोड़कर ज्ञानदशन-चारित्र-तप से युक्त मोक्षमार्ग पर चलता है, तब वह अपना उत्थान करता है। अपने उत्थान और परिकार की तथा पतन और पराभव की कुजियाँ अपने ही हाथों में हैं । दोनों में से चाहे जिसका द्वार स्वेच्छापूर्वक खोला जा सकता है। अपने पौरुषपुरुषार्थ से, उत्थान, कर्म, बल और वीर्य से तथा अपनी ही विवेकशीलता, आस्था और दूरदर्शिता से आत्मा की प्रगति के द्वार खुलते हैं और अपनी ही अकर्मण्यता, अदूरदर्शिता और अनास्था से ही अवगति के द्वार खुलते हैं । अगर यह तथ्य समझ में आ जाए तो प्रतीत होगा कि अपनी आत्मा ही कामधेनु है, कल्पवृक्ष है और चिन्तामणि है, और अपनी आत्मा ही वैतरणी नदी है, आत्मा ही कूट-शाल्मलिवृक्ष है। जिस-जिस कामना से आत्मा की उपासना की जाएगी, उसी के अनुरूप वरदान मिलते जाएँगे। आत्मिक प्रगति और आत्मिक दुर्गति दोनों अपने ही हाथों में हैं। आत्मिक प्रगति का अर्थ है-आन्तरिक दोषों, दुर्गुणों या राग-द्वष-मोहादि या विषयकषायादि विकारों से दूर रहकर मन-वचन-काया को सद्विचारों, सद्वचनों और सत्प्रवृत्तियों में लगाने का सतत प्रयत्न करना; प्रतिपल प्रतिक्षण जागृत रहकर अप्रमत्त-भाव से ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की आराधना करना ।
इसी प्रकार आत्मिक दुर्गति का अर्थ है-हिंसा, असत्य, बेईमानी, चोरी, डकैती, व्यभिचार, दुराचार, परिग्रहवृत्ति, तृष्णा, संग्रहवृत्ति, क्रोधादि कषाय, पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति रागद्वोष, इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग में आर्त ध्यान; इत्यादि दुगुणों को अज्ञानतावश रुचिपूर्वक अधिकाधिक अपनाना। आत्मबोध : आत्मोद्धार का प्रथम सोपान
आत्मा के महत्व, स्वरूप और उसमें निहित स्वगुणों एवं शक्तियों का
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