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________________ आत्मा का उत्थान एवं पतन : अपने हाथों में अपना उत्थान-पतन अपने ही हाथों में मानव अनन्त शक्तियों का अक्षय कोष है । उसके कायिक, मानसिक और बौद्धिक संस्थान में अद्भुत क्षमताओं के एक से एक भण्डार भरे पड़े हैं । उनका व्यवस्थित ढंग से सदुपयोग किया जाए तो सामान्य समझा जाने वाला व्यक्ति भी श्रेष्ठतम आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकता है, जिन्हें देवलोक के देवी-देव भी या इन्द्र भी प्राप्त नहीं कर सकते । यही कारण है कि आध्यात्मिकता के अथवा आत्म शक्तियों के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए महामानव पुरुषोत्तम तीर्थंकर के चरणों में दिव्य ऋद्धियों एवं देवी शक्तियों के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि चौंसठ इन्द्र भी नतमस्तक होते हैं । इसीलिए कि उन पुरुषोत्तम देवाधिदेव तीर्थंकरों ने अपने पास उपलब्ध शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि भौतिक साधनों का आत्मशुद्धि, आत्मशक्ति, आत्म विकास एवं परमात्मतत्व-प्राप्ति में उपयोग किया। उन्होंने अपने इन भौतिक साधनों का उपयोग इन्द्रिय-विषयों की आसक्ति में, कषाय एवं राग-द्वेष-मोह की वृद्धि में, मन-वचन-काय की दुष्प्रवृत्तियों में नहीं किया । वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने यह सिद्ध कर दिया कि अपनी आत्मा का उत्थान एवं पतन, उद्धार एवं विनाश, विकास और ह्रास, अपने ही हाथ में । संसार की कोई भी शक्ति किसी दूसरी आत्मा का उत्थान-पतन या उद्धार - विनाश नहीं कर सकती । अपने विकास और ह्रास का कर्ता-धर्ता स्वयं आत्मा ही है । उत्तराध्ययन सूत्र का वह भगवद्वचन रह-रह कर प्रेरणा दे रहा है अथवा कत्ता विकता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टओ सुप्पट्ठियो || आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का स्वयं कर्त्ता और भोक्ता है । ( २५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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