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आत्मा का उत्थान एवं पतन : अपने हाथों में ३१ डाला । जितने भी महान् त्यागी श्रमण निर्ग्रन्थ हुए हैं, उन्होंने कभी बाह्य परिस्थितियों के अनुकूल होने की अपेक्षा नहीं की, और न ही आत्मविकास में बाधक किन्हीं निमित्तों को कोसा। बाह्य परिस्थितियाँ जीवन निर्माण में कुछ सहायता भले ही करें, परन्तु उनका स्थान श्रमण-संस्कृति में गौण है। असली शक्ति तो व्यक्ति के अपने पास ही है। आत्मा ही शक्ति-सम्राट है। तथागत बुद्ध ने भी यही कहा था
__'अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया।'
आत्मा ही अपना नाथ है, दूसरा कौन नाथ हो सकता है ? अतः आत्मा ही जब सर्वशक्तियों का स्वामी है, तब क्या वह अनुकूल परिस्थिति का निर्माण अथवा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता ? अवश्य कर सकता है। चाहिए प्रतिकूल परिस्थितियों के आगे घुटने न टेककर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का अदम्य साहस एवं पुरुषार्थ । यदि बाह्य परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो दुःखी और विपन्न परिस्थितियों के कारण स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, पेथड़ श्रावक, अब्राहम लिंकन आदि साधारण व्यक्ति ही होते, संसार के लोग उनका नाम भी न जानते। जैन श्रमणों में हरिकेशबल, अर्जुन मुनि, चण्डरुद्राचार्य, दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र आदि के जीवन में भी परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। चन्दनबाला, अंजना, दमयन्ती, सीता, सुभद्रा, कुन्ती आदि महासतियों के समक्ष भी प्रतिकूल परिस्थितियाँ थीं। फिर भी ये सब परिस्थितियों से लड़े और इन्होंने उन पर विजय प्राप्त की। बाल्मीकि, कबीर, सूर, तुलसी, माघ, कालीदास, भूषण आदि कवियों की बाह्य परिस्थितियाँ कोई अच्छी नहीं थीं। उनमें अकस्मात् ही प्रतिभा एवं योग्यता का स्रोत फूट पड़ा। जिसके कारण हम आज उनकी प्रशंसा करते हैं। महाशक्ति का भण्डार तो उनमें पहले से ही विद्यमान था । उन्होंने उसे जाना और पुरुषार्थ करके उसे प्रकट किया । साधारण-सी घटनाओं से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी प्रसुप्त चेतना शक्ति के द्वार खोल दिये और वे संसार में महान् आत्मा माने गए। हर परिस्थिति और व्यक्ति में प्रकाश का पहलू देखें
आत्मविश्वासी व्यक्ति, प्रतिकुल व्यक्ति या परिस्थिति को अपने विकास के लिए हितकर मानते हैं, अपनी आत्म जागृति के अनुकूल समझते हैं। जैसी दृष्टि या मनःस्थिति वैसी ही परिस्थिति
वे जानते हैं कि संसार एक दर्पण के समान है। इसमें अच्छी और
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