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अध्यात्म-साधना के विविध पहलू २३ देवताओं की क्षमता और अनुकम्पा के विषय में बहुत-सी मधुर एवं सुखद कल्पनाएँ की जाती हैं। उनकी अभ्यर्थना मनौती करते हुए यह आशा की जाती है कि वे द्रवित होंगे और साधक की क्षमता, सुविधा एवं प्रसन्नता बढ़ाने में सहायक होंगे। इन देवी देवों की अर्चा-पूजा का प्रचलन प्रायः इसी लौकिक फलाकांक्षा की धुरी पर घूमता है। इतने पर भी बहुत ही कम भाग्यशाली होंगे, जो अपनी लौकिक मनोवांछा एवं भौतिक स्वार्थ की कल्पना को सफल होती देख पाते हों।
इन परोक्ष देवों की तुलना में प्रत्यक्ष आत्मदेव की क्षमता और स्वगुणवृद्धि के सामर्थ्य को यथार्थता की सभी कसौटियों पर इन्हीं आँखों से देखा-परखा जा सकता है । आत्मशुद्धि के लिए की गई रत्नत्रय की साधना से वे सभी परमात्म-सम्पदाएँ, लोकोत्तर सिद्धियाँ एवं आत्मिक शक्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं, जिनके लिए स्वर्ग के देवों के पास भटकने, दीनता दिखाने और निराश रहने की बिडम्बना सहनी पड़ती है । देवों में सर्वश्रेष्ठ आत्मदेव है । परमात्मा भी परम शुद्ध आत्मदेव है । उस तक पहुंचना अत्यन्त सरल है । आत्मदेव की साधना तत्काल फलदायक, सर्वसुलभ एवं सर्वश्रेष्ठ साधना है। आत्मदेव की सतत श्रद्धाभक्ति-पूर्वक साधना से आत्मिक ऋद्धियाँ तो प्राप्त होती ही हैं, उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान, मानसिक शांति, शारीरिक-मानसिक शक्तियाँ आदि भौतिक सिद्धियाँ भी अनायास ही उसके जीवन में अठखेलियाँ करती हैं। आत्मा के शुद्ध स्वरूप या स्वगुण-समूह पर जो मन-वचन-काया की दुष्प्रवृत्तियों के या राग-द्वेषादिजनित दुष्कर्मों के आवरण छाये हुए हैं, उन्हें साहसपूर्वक हटाने की तपश्चर्या करता है तो उससे आत्मदेव की साधना का पूर्वार्ध पूर्ण होता है और उत्तरार्द्ध में आत्मा के ज्ञानादि निजगुणों तथा आत्मा की शक्तियों का संवर्धन करना होता है। यही परमात्मदेव तक पहुँचने की प्रक्रिया है । यही आत्मदेव की साधना का उद्देश्य है । आत्मानुशासन और आत्मशोधन ये आत्म-साधना के दो चरण हैं, इन्हीं से साधक इस परमदेव तक पहुँच सकता है । आत्म-साधना का उद्देश्य आत्मसत्ता को परिष्कृत करके आत्मा की पूर्णता को प्राप्त करना है। छद्मस्थ अवस्था तक आत्मा की अपूर्णता मानी जाती है, किन्तु वीतराग अवस्था प्राप्त होने पर आत्मपूर्णता प्राप्त होती है । निश्चयनय की दृष्टि से संसारी आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । दोनों ही अपने आप में पूर्ण हैं । जैसे ज्वाला और चिनगारी में आकारभर का अन्तर है । मूल क्षमता की दष्टि से, दोनों की स्थिति में
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