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२२ तमसो मा ज्योतिर्गमय आत्मसाधना : आत्मा की भोजन और शोधन करने वाली
शरीर को जीवित और सुसंचालित रखने के लिए दो कार्य आवश्यक होते हैं-(१) भोजन और (२) मल-विसर्जन । भोजन के बिना तो कदाचित कुछ दिन रहा जा सकता है, परन्तु हाजत होने पर मल-त्याग के बिना तो रहा ही नहीं जा सकता । भोजन लम्बे समय तक न किया जाए तो पोषण के लिए नितान्त आवश्यक रस-रक्त की नई उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः पूर्वसंचित रक्त के समाप्त होते ही मनुष्य दुर्बल होकर मृत्यु के मुख में चला जा सकता है। इसी प्रकार मल-त्याग न करने पर शरीर में नित्य उत्पन्न होते रहने वाले विष-विजातीय द्रव्य जमा होते और बढ़ते रहते हैं और कभी न कभी किसी भयंकर रोग या उपद्रव के रूप में प्रकट होकर कष्टकारक मृत्यु के कारण बन सकते हैं।
शरीर की तरह आत्मा को भी भूख लगती है, उस पर मल चढ़ते हैं और उसे भी सफाई की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा के इन दोनों प्रयोजनों को पूर्ण करने वाली प्रक्रिया आत्म-साधना कहलाती है। साधना से सत्प्रवृत्तियों को जगाकर वह सब उगाया या पकाया जा सकता है, जिससे आत्मा की भूख बुझती है । आत्म-साधना से जीवनभूमि में हरी-भरी सद्गुणों की फसल लहलहाती है। साधना से उन सभी मलिनताओं, कल्मषों, कषायों तथा रागद्वेषादि मनोविकारों का निष्कासन होता है, जो आत्मिक प्रगति के हर क्षेत्र में चट्टान बनकर खड़े रहते हैं ।
साधना में प्रयुक्त होने वाली आत्मशोधन और आत्मनिर्माण की उभयपक्षीय प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में धंसे-फंसे कुसंस्कारों को उखाड़ कर उनके स्थान पर सद्गुण रूपी फलों के वृक्ष लगाती है। अतः साधना से मनुष्य मोक्ष-मार्ग के बीच में आने वाली तृष्णा, वासना आदि की कंटीली झाड़ियों से पिण्ड छुड़ाने तथा लब्धि-सिद्धि आदि स्वादिष्ट फल सम्पदा से लाभान्वित होता है। आत्मदेव की साधना ही सर्वश्रेष्ठ साधना है
संसार में जितने भी चमत्कारी देव माने जाते हैं, उन सबसे बढ़कर आत्मदेव है । उसकी साधना प्रत्यक्ष फलदायिनी है। नकद धर्म की तरह उसकी उपासना कदापि निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझकर सही दृष्टिकोण से विधिवत आत्म-साधना की जाए तो वह चिन्तामणि, कल्पवृक्ष या कामधेनु के समान चिन्तित फलदायिनी बन सकती है।
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