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अध्यात्म-साधना के विविध पहलु २१
धन दोनों मिलते हैं । इन सबसे बड़ी उपलब्धि है - आत्म संतोष | वह स्वामी विवेकानन्द की तरह रुग्णता आदि की स्थिति में भी स्वतः प्रेरणा से समय निकालकर रुचिपूर्वक पढ़ता रहता है । अध्ययन के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती । आत्म-साधना के साधक की मनःस्थिति भी ऐसी होनी चाहिए। उसे अध्ययन प्रिय की तरह उस स्वान्तः सुखाय बिना व्यवधान के तन्मयतापूर्वक साधना करते रहना चाहिए । सिद्धि के शिखर पर अर्थात् चौदहवें गुणस्थान पर पहुँचने पर ही उसे अपनी साधना छोड़नी चाहिए । परिणाम की आकांक्षा उसे नहीं रखनी चाहिए । प्रत्येक अच्छे-बुरे कार्य का फल तो अवश्य मिलता है, फिर कोई कारण नहीं कि आत्म-साधना जैसे महान प्रयोजन में सतत् संलग्न रहने का कोई प्रतिफल प्राप्त न हो ।
गायक और वादक एक ही दिन में अपने विषय में पारंगत नहीं हो जाते; उन्हें स्वर, नाद, लय आदि की साधना नित्य निरन्तर करनी पड़ती है । 'रियाज' न करने वाले गायक का स्वर छितराने लगता है, वादक की अंगुलियाँ स्फूर्तिहीन हो जाती हैं । संगीत सम्मेलन तो कभी-कभार होता है, परन्तु वहाँ पहुँचने से पहले और पीछे सफलता दिलाने वाली स्वर साधना तो नित्य करनी पड़ती है । सच्चा संगीत-साधक यह अपेक्षा नहीं रखता कि श्रोताओं ने उसकी कितनी प्रशंसा की या कितनी धनराशि दी; किन्तु आत्मसन्तुष्टि ही नित्य मिलने वाली प्रसन्नता को ही पर्याप्त मानता है । बाहर से किसी से कुछ भी न मिले तो भी तानसेन या बैजू बावरा की तरह वह एकान्त जंगल में भी, किसी स्थान या गुफा में रहकर भी आजीवन मस्ती से संगीत - साधना कर सकता है । आत्म-साधना के साधक की भी मनःस्थिति और वृत्ति प्रवृत्ति ऐसी ही होनी चाहिए ।
नर्तक या अभिनेता अपना अभ्यास नित्य जारी रखते हैं । शिल्पी और कलाकार जानते हैं कि उन्हें अपने शिल्प या कला में सिद्धहस्त बनने के लिए नित्य नियमित अभ्यास करना चाहिए । फौजी सैनिकों को अनिवार्य रूप से प्रतिदिन परेड ( कवायद ) करनी पड़ती है । अभ्यास छूट जाने पर न तो वे निशाना ठीक साध सकते हैं और न ही युद्ध कौशल के लिए उनका हाथ अभ्यस्त रहता है । अध्यात्म साधक भी इसी प्रकार नित्य नियमित रूप से अपनी साधना करता है, क्योंकि वह जानता है कि प्रतिदिन आत्मचिन्तन एवं आत्म-निरीक्षण करते रहने से ही अन्तिम समय में आत्मशुद्धि एवं समाधि की निष्पत्ति हो सकती है ।
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