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________________ २० तमसो मा ज्योतिर्गमय शक्ति के आगे दीनता प्रदर्शित करके कुछ प्रतिफल मांगता है, वह अप आत्मदेवता का अपमान करता है। देवी देव तो स्वतः ही उसकी अध्यात्म साधना से प्रभावित होकर उसके चरणों में आते हैं । वे अपने पास से किस को कुछ देते नहीं, मनुष्य को अपनी साधना के फलस्वरूप पुण्यवृद्धि होने वह स्वतः प्राप्त हो जाता है । ___ जैसे शारीरिक बल बढ़ाने के लिए मुद्गर, डम्बल आदि उठाने घुमाने एवं व्यायाम आदि करने पड़ते हैं। इन उपकरणों में बल कहाँ होत है ? वह तो अपने शरीर की मांसपेशियों से ही उभरता है। उस उभार में व्यायामशाला के साधन सहायताभर करते हैं। मुद्गर आदि साधनों से मिलता कुछ नहीं, मिलता है भीतर से ही। यही बात अध्यात्म साधना वे विषय में समझ लेनी चाहिए। आत्म साधना में प्रयुक्त होने वाले विधि विधान, उपकरण या क्रियाएँ आदि अपने आप में कुछ देते नहीं, वे साधक में निष्ठा एवं भावना जगा देते हैं, वीतराग प्रभु की वाणी, गुरु, आचार्य आदि तथा आगम, शास्त्र आदि उस साधना की कार्यपद्धति बता देते हैं साधक श्रद्धाभक्तिपूर्वक प्रमाद छोड़कर मनोयोगपूर्वक साधना में रत हो जाता है, तो अपने उज्ज्वल भविष्य को असीम सम्भानाएं स्वयं जगा लेता है । आत्म चेतना की जागृति ही साधना का लक्ष्य है, जिसे हो अप्रमत्त साधक अपनाता है। साधक को इसके लिए अपने चिन्तन एवं कर्तृत्व के बिखराव को रोककर आत्मा के अभीष्ट प्रयोजन के केन्द्रबिन्दु पर केन्द्रित करना पड़ता है। इसके लिए भौतिक क्षेत्र में साधना करने वाले किसान, माली आदि के समान ही गतिविधियाँ भी उसी स्तर की रखनी पड़ती हैं। अध्यात्म साधना में सातत्य और धैर्य आवश्यक विद्वान को विद्या की प्राप्ति चटकी बजाने भर से या किसी जादु-मंत्र से नहीं हो जाती । इसके लिए उसे पांच वर्ष की आयु से अध्ययन-साधना का शुभारम्भ करना पड़ता है। विद्यालय और घर में कम से कम छह घंटे का प्रतिदिन अभ्यास एवं मानसिक श्रम करना होता है। इस श्रम में जितनी एकाग्रता, रुचि, श्रद्धा एवं तन्मयता होती है, उसी अनुपात से उसके अध्ययन में प्रगति होती है। इसी मनोयोग एवं उत्साहपूर्ण श्रम पर विद्यार्थी का अच्छे नंबरों में उत्तीर्ण होना निर्भर है। इतना ही नहीं, स्नातक बन जाने पर भी ऐसा विद्या-साधनाशील व्यक्ति चुप नहीं बैठता, वरन् अपने मनोनीत विषयों पर विशेष अध्ययन के लिए अनेक ग्रन्थों को पढ़ता रहता है। अध्ययन से वह विरत नहीं होता । इस विद्या-साधना से उसे सम्मान और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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