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१४ तमसो मा ज्योतिर्गमय से प्रभावित न होने के कारण वह सहज रूप से इन्द्रिय विजेता बन जाता है। उसकी शक्ति अधोमुखी न होकर ऊर्ध्वमुखी बन जाती है। उसे चाहे कर्कश स्पर्श हो, चाहे कठोर स्पर्श हो, उसे सुखदायी प्रतीत होता है ।
भाषा शास्त्र की दृष्टि से 'ड' 'अ' 'ण' 'न' 'म' ये अनुनासिक वर्ण हैं । इन पाँच अनुनासिक वर्गों में 'ण' और अनुस्वार () में विशिष्ट शक्ति उत्पन्न करने का सामर्थ्य है । मन्त्र शास्त्र की दृष्टि से भी इन वर्गों को बीजाक्षर माना है। जिन मन्त्रों में अनुनासिक वर्गों की अधिकता होती है, वह मन्त्र बहुत ही प्रभावशाली होता है । नमस्कार महामन्त्र के प्रत्येक पद का प्रारम्भ और अन्त अनुनासिक वर्गों से हुआ है । कम से कम प्रत्येक पद में चार अनुनासिक वर्ण हैं । और किसी पद में अधिक भी हैं । अनुनासिक वर्गों की अधिकता के कारण इस महामन्त्र में सामान्य मन्त्रों की अपेक्षा कई गणी अधिक शक्ति है। इस महामन्त्र के जाप से साधक के मन और मस्तिष्क में एक ऊर्जा शक्ति समूत्पन्न होती है। जिससे साधक में अपूर्व तेज पैदा होता है । उसके आस-पास ऐसा अभेद्य कवच निर्मित हो जाता है जिससे कोई भी बाधाएँ उसमें प्रवेश नहीं कर सकती और फिर उसे किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं हो सकती।।
नमस्कार महामन्त्र आदि मंगल के रूप में भगवती, प्रज्ञापना, कल्प सूत्र और षट् खण्डागम में प्राप्त है । खारवेल का शिला-लेख जो ई० पूर्व १५२ में उत्कीर्णित है उसमें "नमो अरिहंताणं" "नमो सवसिधानं" ये पद प्राप्त हैं। आचारांग के अनुसार जब श्रमण भगवान महावीर दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था। उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन में सिद्ध और साधुओं को नमस्कार करने का उल्लेख है "सिद्धाणं नमो किच्चा संजयाणं च भावओ"। महानिशीथ के अनुसार जो नमस्कार महामंत्र भगवान महावीर के समय था वही महामन्त्र इस समय प्रचलित है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार नमस्कार महामन्त्र सामायिक का एक अंग है । सामायिक आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन है। आचार्य देववाचक ने नन्दी सूत्र की सूची में आवश्यक सूत्र का उल्लेख किया है । अतः सामायिक अध्ययन का नमस्कार महामन्त्र एक अंग होने से वह भी आवश्यक सूत्र की तरह ही प्राचीन है । कायोत्सर्ग श्रमण साधना का महत्वपूर्ण अंग है । उसका प्रारम्भ और अन्त पंच नमस्कार से ही होता है। सूत्र का प्रारम्भ भी आवश्यक नियुक्ति के अनुसार नमस्कार सूत्र से किया जाता है। विशेषा
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