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________________ २२८ तमसो मा ज्योतिर्गमय है । अहिंसा यों है कि साधु जीवन-लालसा या शरीर-मोह से प्रेरित होकर ऊपर नहीं आता, किन्तु जब वह ऊपर से एकदम नीचे असावधानी से गिरता है तो शरीर अपने सन्तुलन में नहीं रहता। असन्तुलित शरीर लुढ़कतालुढ़कता न जाने कितनी दूर जाकर गिरेगा? यह कहा नहीं जा सकता। जितनी दूर वह लुढ़कते हुए जाएगा, उतनी दूर तक उसके शरीरपिण्ड द्वारा न जाने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक कितने जीवों की हिंसा होगी। गिरने पर अगर कोई शरीर का अवयव टूट गया तो जब तक वह साधु जिन्दा रहेगा, तब तक सड़ता रहेगा। सर्दी-गर्मी के प्रकोप से या हिंस्र जीवों के उपद्रव से पीड़ित होने पर उसके मन में आत-रौद्रध्यान भी पैदा होंगे । दूसरा साधु या गृहस्थ भी उसकी सेवा में वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है, ऐसी स्थिति में विलाप करते हुए उसकी मृत्यु होगी तो पवित्र आत्मभावों की हिंसा होने से दुर्गति ही प्राप्त होगी। यह हिंसा की परम्परा कितनी लम्बी और बड़ी है। उसे फल-फूल-पत्ते आदि से कोई मतलब नहीं, लेकिन भविष्य में पहले बताए हुए रूप में भयंकर हिंसा की सम्भावना से, उस हिंसा से बचने हेतु वह वृक्ष, लता आदि को पकड़ता है । साधु औषधि सेवन भी करता है तो भविष्य में शरीर अत्यन्त रुग्ण होने से पराधीन, अशक्त और आर्तध्यानरत होने से होने वाली हिंसा को रोकने के लिए ही। गृहस्थ जीवन में कभी-कभी किसी भयंकर बड़ी हिंसा को रोकने के लिए वर्तमान की अल्पहिंसा सह्य होती है, वह भी अहिंसा की ओर ले जाने वाली बनती है । एक ऐतिहासिक घटना लीजिए __ एक कस्बे में एक पठान रहता था। उसने एक बकरी पाल रखी थी। पड़ोस में ही एक बनिये का घर था। उसके एक लड़का था, जो कभी-कभी पठान की बकरी दुह लेता, और दूध पी जाता था। कई दिन हो गए। पठान की बकरी ने दूध देना बंद कर दिया। पठान की पत्नी ने एक दिन बनिये के लड़के को दूध दुहते हुए देख लिया। उसने शाम को घर आते ही पठान से शिकायत की --- "तुम में कुछ दम नहीं है। मैं देखती है, यह पड़ोसी बनिये का बेटा रोज-रोज अपनी बकरी को दुह लेता है। तुम्हें तो यह कुछ भी नहीं समझता।" पठान को यह सुनकर अत्यन्त गुस्सा आया। पठान ने बनिये से कहा-सुनी की । बनिये ने अपने लड़के को समझाया कि 'आयंदा वह कभी पठान की बकरी न दुहे ।' परन्तु उसकी आदत सहसा कैसे छूट सकती थी। कुछ दिनों तक दुहना बंद करके फिर दुहना शुरू किया। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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