SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २२७ के महान् आचार्य अमृतचन्द्र ने इसी प्रकार का चिन्तन दिया है। कहीं-कहीं दिखाई देने वाली अहिंसा परिणाम में हिंसा का फल देती है और कहींकहीं हिंसा (अल्प हिंसा) भी अहिंसा का फल देती है। सवाल होता है कि अहिंसा हिंसा फल कैसे दे देती है ? एक उदाहरण द्वारा इसे समझना उचित होगा-एक व्यक्ति बहुत गरीब स्थिति में है, उसके पिता धनाढ्य थे । दूसरे एक सेठ ने इस लोभ से उसे सहायता दी, अपने यहाँ नौकर रख लिया। लोभ यह था कि धीरे-धीरे उसके पिता की जमीन-जायदाद पर कब्जा कर लेंगे और इसे अंगूठा दिखा देंगे। इस घटना में बाहर से तो उक्त गरीब पर दया दिखाई; इसलिए अहिंसा प्रतीत होती है । लेकिन अन्दर ही अन्दर वृत्ति उसका माल हड़प जाने की थी, इसलिए बाहर से अहिंसा दिखाई देने पर भी फल हिंसा का ही प्राप्त होता है, क्योंकि भावों में हिंसा थी। । हिंसा भी अहिंसा का फल कैसे देती है, इसके लिए पूर्वोक्त विवेचन उपयुक्त है। वर्तमान की अल्प स्थावरहिंसा भविष्य की महान हिंसा को रोकती है और शरीर-रक्षा से अहिंसा पालन किये जाने के कारण अहिंसा का फल देती है। - इसके लिए एक शास्त्रीय प्रमाण देखिए-आचारांग सूत्र में एक प्रसंग है कि एक पंच महाव्रतधारी साधु पहाड़ पर चढ़ रहा है । बहुत ही संकड़ी पगडंडो है, बहुत सावधानी से चढ़ना पड़ता है, यदि जरा-सा भी चूक जाय तो पैर फिसलकर नीचे गहरे गड्ढे में गिर सकता है। मान लो कि साधु के पैर अचानक लड़खड़ा गए, वह गिरने की स्थिति में है। उस समय क्या करे ? शास्त्रकार कहते हैं--"अगर वहाँ वृक्ष है तो वृक्ष को, बेल है तो बेल को और मुसाफिर आ जा रहे हों तो उनके हाथ का सहारा लेकर भी ऊपर आ जाय और आत्मरक्षा करे।" शास्त्र ने संक्षेप में अपनी बात कह दी । परन्तु हमारा अहिंसा का चिन्तन अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत करता है कि साधु को अपने शरीर का भी मोह नहीं रखना चाहिए, फिर वृक्ष और लता को पकड़ने का विधान-जो कि असंख्यजीव-हिंसाजनक है, क्यों किया गया ? अपनी आत्मरक्षा के लिए साधु दूसरे प्राणियों की हिंसा कैसे कर सकता है ? इसके पीछे क्या रहस्य है ? वास्तव में साधु जब गिरने की स्थिति में होता है, तब वृक्ष आदि का सहारा लेकर ऊपर आता है, वह हिंसा के माध्यम से ही, किन्तु आचार्यों के इस सूत्र पर चिन्तन में ऐसी परिस्थिति में साधु के लिए हिंसा नहीं, अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy