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हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य
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मक्का के पकौड़े बनाये पकौड़े बनाने का भी राज्य सम्मानित तथा मुझसे कहा - "बाड़े में पत्तियाँ तोड़ लाओ ।"
खूब अच्छा हुआ था, अतः ग्राम के बड़े-बड़े लोगों ने मिलकर गोठ करने का निश्चय किया। सभी लोगों ने विचार किया कि जायँ । मक्का के पकौड़ों के साथ ही कुछ भांग विचार हुआ । मेरे सांसारिक पक्ष के मामाजी वहाँ प्रतिष्ठित नागरिक माने जाते थे । मेरे मामाजी ने भांग बहुत उगी हुई है, अतः वहाँ जाकर भांग की मुझे यह नहीं बताया गया कि पत्तियाँ कितनी तोड़कर लानी हैं । मैं अबोध बालक था । दौड़ा-दौड़ा बाड़े में गया और ढेर -सी पत्तियाँ तोड़ लाया । मेरे अनुमान से पत्तियाँ लगभग सेर भर होंगी । मेरे मामाजी धार्मिक विचारों के थे, वे सम्भवतः चौविहार भी रखते थे, प्रतिक्रमण भी नित्य करते थे । पापभीरु होने के कारण मेरे हाथ में भांग की ढेर-सी पत्तियाँ देख वे मुझसे कहने लगे - " जवाहर ! इतनी पत्तियाँ क्यों तोड़ लाया ? थोड़ी-सी भांग की जरूरत थी । तुझमें इतनी भी अक्ल नहीं है कि इतनी ढेर पत्तियों का क्या होगा ?" इस प्रकार वे मुझे उलाहना भरे स्वर में डांटने लगे । लेकिन यह कसूर मेरा था या उनका ? जब वे जानते थे कि मैं अबोध बालक हूँ, इतना विवेक कहाँ कि मैं थोड़ी-सी पत्तियाँ लाता । न उन्होंने मुझे विवेक सिखाया, न बच्चा होने के कारण मुझमें विवेक ही था ।
इस तरह इस घटना में अधिक पापबन्ध करने की अपेक्षा कराने में हुआ, जिसे अगर मेरे मामाजी स्वय हाथ से करते तो शायद कम से कम पापबन्ध से कर सकते थे । क्योंकि अपने हाथ से वे भांग के पत्ते तोड़कर लाते तो जितनी आवश्यकता थी, उतनी ही लाते, अधिक नहीं । दूसरे, उलाहना देने या भला-बुरा कहने का मानसिक वाचिक क्लेश न होता ।
एक बहन जो विवेकवती है, वह स्वयं चौके की मर्यादा अहिंसा की दृष्टि से निभा सकती है, यथाशक्ति जीवरक्षा कर सकती है । परन्तु वह इस भ्रम में है कि स्वयं रोटी बनाने में पाप लगता है । यद्यपि वह स्वयं खाने तथा पारिवारिकजनों को खिलाने की जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हुई है । इस स्थिति में वह किसी अविवेकी नौकरानी को रोटी बनाने का काग सौंपती है, जिसे अहिंसा सम्बन्धी मर्यादा का ज्ञान नहीं है । वह तो जैसेतैसे रोटियाँ सेक कर रख देगी । उसे यह भान नहीं है कि पानी छना हुआ है या बिना छना ? लकड़ियों में कोई जीव है या नहीं, देखभाल नहीं
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