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________________ २१६ तमसो मा ज्योतिर्गमय प्रश्न यह है कि इन तीनों कारणों में से किसमें पापबन्ध कम है, किसमें ज्यादा? - इसका समाधान यह है कि जैन धर्म अनेकान्तवादी धर्म है, वह हर बात को विभिन्न दृष्टिकोणों से देख-परखकर ही निर्णय देता है । जैन धर्म का निर्णय भावों की विविधता पर है, कहीं-कहीं विवेक पर आश्रित है । करना, कराना और अनुमोदन-ये तीनों विवेकदष्टि पर निर्भर हैं। जहाँ जीवन की नीची भूमिका होती है, वहाँ विचारों का प्रवाह अनियन्त्रित रहता है, वहाँ प्रायः एकान्त दृष्टि का ही आग्रह रखा जाता है, किन्तु जीवन की भूमिका जहाँ जिज्ञासु साधक की होती है, वहां व्यक्ति फूंक-फूंक कर कदम रखता है। ___ कई लोग भ्रान्तिवश यह सोच लिया करते हैं कि अगर हम अपने हाथ से काम करेंगे तो हिंसा हमसे होगी और उसका पाप हमें लगेगा, इसलिए दूसरे से या नौकरों से काम करवा कर यह सन्तोष कर लेते हैं कि इस कार्य में जो कुछ हिंसा हुई है, उसका पाप उसे लगेगा, लेकिन यह सिद्धान्त यथार्थ नहीं है। जब तक व्यक्ति आरम्भजनक कार्यों को सर्वथा छोड़कर महाव्रती साधक नहीं बन जाता, तब तक स्वयं कार्य छोड़कर दूसरों से कराने पर भी उस पापबन्ध से छूट नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि जिस कार्य को व्यक्ति स्वयं विवेकपूर्वक कर सकता है, उस कार्य को जब ऐसे व्यक्ति (नौकर आदि) से कराता है, जिसे बिल्कुल विवेक नहीं है । ऐसे अविवेकी से काम कराने में अनेकगुनी हिंसा ज्यादा होगी, पापबन्ध भी अधिक होगा। मतलब है कि साधक जब स्वयं काम करता है तो यदि उसमें विवेक, विचार और चिन्तन है तो वह उस कार्य में जान डाल देगा। वह अन्धाधुन्ध एवं अविवेक से जैसे-तैसे कार्य को बेगार समझकर नहीं करेगा। परन्तु जो साधक स्वयं दक्षतापूर्वक काम कर सकता है, किन्तु वह स्वयं न करके किसो ऐसे व्यक्ति से, जिसकी भूमिका उस काम के योग्य नहीं है, उस काम को वह विवेक से नहीं कर सकता, यदि आग्रहपूर्वक करवाता है, तो ऐसी स्थिति में करने की अपेक्षा करवाने में ज्यादा पापबन्ध होता है। पूज्यश्री जवाहरलालजी महाराज के बचपन की एक घटना है। वे स्वयं लिखते हैं कि उस समय मेरी आयु करीब दस साल की होगी। जिस गाँव में मेरा जन्म हआ था, वहाँ मुख्य खान-पान मक्का का था। वहाँ मक्का पैदा हो जाता तो वर्ष अच्छा मानते । मक्के का उत्पादन उस वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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