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हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य
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उसके लिए प्रेरणा भी करनी पड़ती है । मान लीजिए -दो करण तीन योग अहिंसा के यहाँ कोई राज्याधिकारी आ गया । उससे श्रावक ने कहा - उठिए, भोजन कर लीजिए। इस प्रकार भोजन की प्रेरणा कर दी। लेकिन भोजनकर्ता यदि कहीं जा कर अभक्ष्य पदार्थ खाये तो क्या होगा ? अगर उसके साथ सम्बन्ध का त्याग कर दिया जाय तो क्लेश वृद्धि होने की सम्भावना है । यदि वह थोड़ा हिंसक है तो सम्बन्ध तोड़ देने पर संभव है, अधिक हिंसक बन जाए । सम्बन्ध रखने पर कदाचित उसे सन्मार्ग पर भी लाया जा सकता है । मतलब यह है कि गृहस्थ होने के कारण श्रावकों का इस प्रकार का सम्बन्ध बना रहता है । किसी अच्छे काम के लिए किसी सम्बन्धित व्यक्ति के साथ गत्यवरोध न हो, इस कारण श्रावक तीसरा करण खुला रखता है । इससे पापी को भी सुधारने में कोई अड़चन नहीं आ सकती ।
मान लीजिए, किसी ने अपने लिए सौदा किया, किसी ने अपने लिए मुनीम से सौदा कराया और किसी ने सोदा करने वाले को सम्मति या सलाह दी । यहाँ वह स्वयं किये या कराये हुए सौदे के हानि लाभ को तो भोगेगा, किन्तु जिसे सलाह दी है, वह उसके हानि लाभ को नहीं भोगेगा । सौदा करने वाले को केवल सलाह देने के कारण उसे अनुमति का दोष अवश्य लगा है, लेकिन उस श्रावक के दो करण तीन योग से लिये हुए व्रत में कोई आंच नहीं आती ।
तात्पर्य यह है कि श्रावक यद्यपि अनुमोदनरूप हिंसा खुली रखता है, फिर भी विवेकवान होने के कारण वह उस हिंसा को भी मन, वचन, काया से टालने की कोशिश करता है । परिस्थितिवश यदि उसे संवासानुति का दोष लगता है, उसके लिए वह पूरा सतर्क रहता है । पापबन्ध किसमें ज्यादा किसमें कम ?
हिंसा तीन तरह से होती है, स्वयं करने से होती है, कहीं दूसरे से कराने से होती है, कहीं अनुमोदन से होती है। एक आदमी स्वयं काम करता है, उससे हिंसाजनित पापबन्ध होता है । दूसरा स्वयं नहीं करता किन्तु दूसरों से करवाता है, उससे हिंसाजनित पापबन्ध होता है । तीसरा स्वयं करता भी नहीं, करवाता भी नहीं, सिर्फ करने वाले का अनुमोदन या सराहना करता है और उसमें भी हिंसाजनित पापबन्ध होता है । अत
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