________________
२१४ तमसो मा ज्योतिर्गमय
(6) किसी अन्य व्यक्ति से कराना ।
(8) कोई अन्य व्यक्ति किसी जीव की हिंसा कर रहा हो तो उसक अनुमोदन करना।
इन प्रकारों में से तीसरे, छठे और नौवें प्रकार को छोड़कर बार्क के ६ प्रकारों से जैन श्रावक हिंसा का त्याग करता है। अनुमोदन के आश्रित तीन प्रकार खुले रखे हैं, उनमें भी यथाशक्ति विवेक रखता है। .. यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि जब हिंसा बुरी है तो श्रावक को हिंसा की अनुमोदना का त्याग भी करना चाहिए। वह हिंसा करने वाले से परिचय रखने का त्याग क्यों नहीं करता ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि श्रावक ने अपने द्वारा की या कराई जाने वाली हिंसा का त्याग किया है, वह अभी अपने परिवार व पुत्र-पौत्रादि के साथ सम्बन्धित है, उसने गृहत्याग नहीं किया है, अतः ममत्व भाव का छेदन नहीं किया है । अतएव जब पुत्र-पौत्रादि के साथ रहता है और उनमें से कोई हिंसा करता है या हिंसा का श्रावक के दर्जे तक का त्याग नहीं किया है, ऐसी हालत में संवासानुमति का दोष उसे लगे बिना नहीं रह सकता। संभव है, आत्मीय जनों में से कोई हिंसा करे और वह उसे न छोड़ सके, अतएव वह हिंसा करने वाले से परिचय रखना छोड़ नहीं सकता। महाशतक श्रावक व्रतधारी श्रावक था, लेकिन उसकी पत्नी ने हिंसा त्याग नहीं किया था। फिर भी वह उसे परित्यक्त न कर सका। संभव है, परित्यक्त कर देने से वह व्यभिचारादि में प्रवृत्त हो जाए, यह भी आशंका हो । प्राचीन काल में हिंसा की अपेक्षा भी व्यभिचार का पाप अत्यन्त भयंकर समझा जाता था।
इसी तरह गृहस्थाश्रमी श्रावक अपनी जाति को भी नहीं छोड़ सकता और न जाति के सभी लोगों पर इस बात को बलात थोप सकता है कि वे न स्थूल हिंसा करेंगे और न करायेंगे । इसलिए जो हिंसा करतेकराते हैं, उनके साथ सम्बन्ध रखने से अनुमोदन का दोष लगता है। इस बात को लक्ष्य में रख कर गृहस्थ श्रावक को दो करण तीन योग से हिंसा को त्याग करना बतलाया है । इस प्रकार का त्याग करने से गृहस्थ के संसार-व्यवहार में बाधा नहीं आ सकती।
एक बात और है, गृहस्थ श्रावक के आश्रित पुत्र-पौत्रादि भी रहते हैं, उनके द्वारा को गई हिंसा से संसर्ग दोष ही नहीं लगता, कभी-कभी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org