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नमस्कार महामन्त्र की साधना
महामन्त्र की गरिमा और गौरव के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती और राजस्थानी में विपुल साहित्य का सृजन किया है । विविध दृष्टियों से इस महामन्त्र की महत्ता का उट्ट कन किया है ।
यह अनुभूत सत्य है कि महामन्त्र की शक्ति अमोघ है । इसका प्रभाव अचिन्त्य है, यह सिद्ध मन्त्र है । इस महामन्त्र की साधना से साधक को लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की उपलब्धियाँ सम्प्राप्त होती हैं। शारीरिक और मानसिक स्वस्थता का अनुभव होता है । और आध्यात्मिक उत्कर्ष के सन्दर्शन होते हैं । साधक अहं का विसर्जन कर अहं तक पहुँचने का प्रयास करता है । यह महामन्त्र बहुत ही अद्भुत और वैज्ञानिक है । जैन परम्परा इस महामन्त्र को अनादि मानतो है । कितने ही शोधार्थी विज्ञगण इस सम्बन्ध में अपने तर्क उपस्थित करते हैं । हमें उस तर्क के जाल में न उलझ कर यह सत्य तथ्य स्वीकार करना होगा कि जिस किसी भी महापुरुष ने इस महामन्त्र की संरचना की, वह अद्भुत मेधा का धनी था और विशिष्ट ज्ञानी था । क्या आध्यात्मिक दृष्टि से और क्या भौतिक दृष्टि से यह मन्त्र पूर्ण है । इस महामन्त्र के बीजाक्षरों को आधुनिक शब्दविज्ञान के परीक्षण प्रस्तर पर कसते हैं तो सहज ही परिज्ञात होता है कि इसमें विलक्षण, ऊर्जा और शक्ति का भण्डार रहा हुआ है ।
इस महामन्त्र के पाँच पद हैं। पैंतीस अक्षर हैं, अड़सठ वर्णं हैं । इन सभी वर्णों का अपना विशिष्ट अर्थ है, विशिष्ट शक्ति है, और ऊर्जा समुत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता है ।
प्रथम पद है " नमो अरिहंताणं" इस पद में सात अक्षर हैं, जिसमें सात स्वर हैं । और छः व्यंजन हैं । नासिक्य व्यंजन तीन हैं । और नासिक्य स्वर दो हैं और १३ वर्ण | तत्व की दृष्टि से इसमें "इ" (मातृका वर्ण के रूप में) और 'र' अग्नि बीज है । 'अ' और 'ता' वायु बीज हैं। 'हं' 'नमो' और 'णं' यह आकाश बीज हैं। इस प्रकार प्रस्तुत पद में अग्नि, वायु और आकाश ये तीनों तत्व विद्यमान हैं । अग्नि तत्व के कारण अशुभ कर्म की निर्जरा अधिक मात्रा में होती है । वायु तत्व के कारण जो कर्म - रज, निर्जरित हुए वह रज वायु से उड़ जाती है तथा आकाश तत्व ऐसे सुदृढ़ कवच का निर्माण करता है, जिससे साधक में जो ऊर्जा शक्ति समुत्पन्न हुई है वह बाहर नहीं जाती, और अन्य बाहर के विकार उसमें प्रवेश नहीं
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