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________________ २०४ तमसो मा ज्योतिर्गमय ज्यादा होगी । इस क्रम के अनुसार द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय में अधिक, त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय में और चतुरिन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीवों में हिंसा अधिक मानी जाती है; और पंचेन्द्रिय जीवों में भी दूसरे प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को मारने में और मनुष्यों में भी शासक को और शासक के बजाय एक महाव्रती साधु को मारने में उत्तरोत्तर अधिक हिंसा होती है । अगर ऐसा नहीं माना जाएगा तो इस प्रकार 'सर्वजीवहिंसा समान' मान्यता के अनुसार जल का एक गिलास पीने में और मनुष्य का रक्त पीने में कोई भेद नहीं होना चाहिए ! क्योंकि दोनों ही प्रासुक रूप से उपलब्ध हो सकते हैं । हस्तितापसों के मत को मानने वाला साधु अगर सब जीवों की हिंसा को बराबर मानकर चलता है तो उसे आहार सम्बन्धी नियमा नुसार गृहस्थ के द्वारा दी जाने वाली उबली हुई ककड़ी की तरह उबली हुई मछली के लेने में कोई विचार नहीं होना चाहिए क्योंकि उनके मतानुसार तो जैसी पीड़ा एकेन्द्रिय ( ककड़ी) को हुई, वैसी ही पीड़ा पंचेन्द्रिय (मछली) को हुई है न ! परन्तु जब व्यवहार के मैदान में आते हैं, तब असलियत खुल कर सामने आ जाती है । जीव यदि मरने वाले जीवों की गणना करके हिंसा का लेखा-जोखा किया जाता हो तब तो ऐसी मान्यता वाले साधु के सामने कोई आकर यह कहे कि "महाराज ! गाजर-मूली खाने में अधिक मरते हैं, अतः अधिक हिंसा होती है, बकरा मार कर खाने में सिर्फ एक जीव की हिंसा होती है. इसलिए मुझे दोनों में से किसी एक अधिक हिंसा वाली चीज का त्याग करा दें ।" बोलिए, उस समय वह साधु क्या फैसला करेगा ? किसका त्याग करायेगा ? निश्चय ही वह बकरे को मारने या उसका मांस खाने का त्याग करायेगा । अतः अन्ततोगत्वा उन्हें 'सर्वजीवसमान, सर्वजीवहिंसा-समान वे सिद्धान्त को तिलांजलि देकर भगवान महावीर के सही सिद्धान्त पर आन ही पड़ेगा । अन्यथा, २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का पशुहिंसात्याग के सन्दर्भ में पशु मोचन संबंधी मसला, कैसे हल होगा ? नेमिनाथ विवाह करना ही नहीं चाहते थे, किन्तु यादवों में प्रविष्ट महाहिंसा को दूर करने के लिए विवाह के लिए किसी तरह मान गए । जब बरात की तैयारी होने लगी, तब स्नान क कुण्डी में अनेक स्थलों का जल एकत्र किया गया । कहते हैं, १०८ घड़ों के पानी से स्नान कराया गया तथा विभिन्न प्रकार के फूलों की अगणित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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