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________________ हिंसा-अहिंसा की परख २०५ मालाएँ पहनाई गईं। अगर 'सर्वजीवहिंसा-समान' का सिद्धान्त होता तो वे उसी समय मन में यह सोच कर कि मेरे विवाह के समय पशु तो गिनती के छूटेंगे, यानी थोड़े-से जीवों की हिंसा छ्टेगी, किन्तु यहाँ असंख्यात जीवों की हिंसा हो रही है । वे कह देते-मेरे विवाह के लिए इतनी हिंसा हो रही है ! जल की एक बँद में असंख्यात जीव हैं, फूल की एक पंखुड़ी में भी असंख्य जीव हैं. अतः इस हिंसा को देखते हुए मुझे विवाह करना श्रेयस्कर नहीं है। मगर नेमिनाथ उस समय कोई विरोध किये बिना ही चुपचाप स्नान करके रथ पर आरूढ़ हो गए। लेकिन जब बरात द्वारिका से चल कर राजा उग्रसेन के यहाँ पहँची और तोरण के पास नेमिनाथ आए, तब उन्हें बाड़े में अवरुद्ध पशु-पक्षियों की करुण पुकार सुन कर सारथी से कारण पूछा । सारथी ने कहा-1"ये भद्र प्राणी आपके विवाह-प्रसंग पर अनेक लोगों को भोजन कराने के लिए यहाँ एकत्र किये गए हैं।" सारथी की बात सुनते ही दयासागर नेमिनाथ करुणार्द्र होकर बोले --"यदि विवाह के निमित्त ये बहत से प्राणी मारे जाते हैं, तो यह हिंसा मेरे लिए परलोक में श्रेयस्कर नहीं होगी । अतः इन सब पशुओं को बाड़े से बाहर निकाल दो।" सारथी ने वैसा ही किया। उसके बाद नेमिनाथ विवाह न करके उस यादव जाति को महाहिंसा-त्याग की प्रेरणा देकर स्वयं साधना पथ पर चल पड़ते हैं। यहाँ विचारणीय यह है कि जीव अधिक संख्या में कहाँ थे ? बाड़े में या जल की कुण्डी में ? बाड़े में तो गिनती के पशु-पक्षी थे, लेकिन जल की एक बूंद में असंख्यात जीव मानें तो, पूरी जल की कुंडी में कितने ही असंख्य जीव थे। बुद्धि से सोचिए-यदि एकेन्द्रिय जीवों और पंचेन्द्रिय जीवों को हिंसा बराबर मानी जाती तो तीर्थंकर नेमिनाथ स्नान के समय ही स्पष्ट इन्कार कर देते, विरोध प्रगट कर देते । अतः हिंसा की तरतमतान्यूनाधिकता हिंस्य जीवों की गणना द्वारा आंकना, जैन धर्म की अपनी कसौटी नहीं है । हिंसा के तारतम्य को समझने के लिए हिंस्य जीवों के शरीर, इन्द्रिय, प्राण, चेतना आदि के विकास एवं साथ ही हिंसक के मनो. भावों की तीव्रता-मन्दता को समझना होगा। १ उत्तराध्ययन सूत्र २२/१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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