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________________ हिंसा-अहिंसा की परख २०३ क्रूरता और निर्दयता की आग नहीं जलती; तथा गेहूँ आदि अनाज तो दूसरी खुराक न होने से विवश होकर प्राणी प्राणरक्षा के लिए खाते हैं, जबकि बकरे आदि का मांस खाने वाले लोग अन्य सात्त्विक आहार होते हुए भी स्वादलोलुपता या परम्परागत रूढ़िवश अस्वाभाविक रूप से हिंसा कर डालते हैं । फिर बकरा, हाथी आदि कोई भी पंचेन्द्रिय जीव मारा जाता है, उस समय अन्तःकरण की स्थिति दूसरे प्रकार की हो जाती है। पंचेन्द्रिय जीव विकसित चेतना वाला प्राणी होता है, जिसको चेतना का विकास जितना अधिक होता है, उसे उतने ही अधिक दुःख का संवेदन होता है। चेतना के अधिक विकास के अलावा उसमें प्राण भी अधिक होते हैं, शरीर की बनावट भी अधिक बड़ी होती है । इन्द्रियाँ भी अधिक और विकासशील होती हैं । वह हलचल करने वाला विशालकाय प्राणी है। जब उसे मारा जाता है तो घेरा जाता है, उसके मन में भी प्रतिक्रिया जागती है, वह अपनी आत्मरक्षा के लिए या तो प्रत्याक्रमण करता है या फिर भागने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार जब अन्तःकरण के भावों में तीव्रता होती है, करता, निर्दयता अधिक होती है, तभी उसकी हिंसा की जाती है। अतः यह सिद्ध है कि पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा तीव्र और क्रूर परिणामों के बिना नहीं हो सकती। इसीलिए उसकी हिंसा बड़ी हिंसा कहलाती है। वह अधिक पापकर्मबन्ध का कारण बनती है और इसी कारण औपपातिक एवं भगवती सूत्र में नरकगमन के कारणों में एक कारण पंचेन्द्रिय वध बतलाया है । एकेन्द्रिय वध को नरक का कारण कहीं बताया। अतः थोड़े-से पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा अत्यन्त उग्र नरकगमन फलदायिनी होती है, जबकि अनेक स्थावर जीवों की हिंसा स्वल्पफदायिनी होती है ।। निष्कर्ष यह है कि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव तक की हिंसा में परिणाम एक सरीखे नहीं रहते, अतः उनकी हिंसा भी एकसरीखी नहीं मानी जा सकती । ज्यों-ज्यों भावों में तीव्रता बढ़ती जाती है, प्राण, चेतना और सुख दुःख संवेदन का विकास भी ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों हिंसा की तीव्रता में भी वृद्धि होती है। एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीव की हिंसा में परिणाम अधिक उग्र होंगे, इसलिए हिंसा की मात्रा भी १ एकस्याल्पा हिंसा, ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा, स्वल्पफला भवति परिपाके । ___-पुरुषार्थ. ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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