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हिंसा-अहिंसा की परख २०१
सभी जीव समान हैं, तो उनकी हिंसा भी समान होनी चाहिए, किसी की हिंसा कम और किसी की अधिक कैसे हो सकती है ? फिर कोई जीव कम हिंसक और कोई अधिक हिंसक कैसे माना जा सकता है ? यदि माना जाए तो कारण क्या है उसका ? इसी नये सिद्धान्त के आविष्कार के अनुसार यह हल निकाला गया कि जहाँ जीव ज्यादा मरेंगे, वहाँ ज्यादा हिंसा होगी, जहाँ कम मरेंगे, वहाँ कम होगी । मतलब यह है कि जीवों को गिन-गिन कर हिंसा को न्यूनाधिकता का हिसाब लगाया जाना चाहिए ।
हिंसा का नाप-तौल : भावों से या संख्या से
परन्तु मरने वाले जीवों की गिनती से हिंसा के नाप-तौल का यह सिद्धान्त जैन सिद्धान्त से मेल नहीं खाता । जैन सिद्धान्त तो जैसा कि भावहिंसा के प्रसंग में मैंने कहा था, भावों की गिनती करता है, वह भावों को तोलता है । वह संख्या के गज से जीवहिंसा को नहीं नापता ।
मैंने एक ईसाई पादरी को यह कहते सुना था कि हिन्दू लोगों से तो हम ज्यादा दयालु और अहिंसक हैं । हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों के अनुसार गेहूँ आदि पदार्थों में बहुत जीव है । और जब गेहूँ की खेती की जाती है, तब मिट्टी, पानी के और न जाने कितने ही अन्य हजारों जीवों की हिंसा की जाती है, तब कहीं ये हिन्दू अपना पेट भर पाते हैं । हम ईसाई लोग सिर्फ एक बकरे को मारते हैं, उससे एक से भी अधिक व्यक्तियों का पेट भर जाता है । इसलिए हम बहुत कम हिंसा से अपना पेट भर लेते हैं और ये हजारों जीवों की हिंसा करके पेट भरते हैं ।
यहाँ भी वही मरने वाले जीवों की गिनती के आधार पर हिंसा की नाप-तौल करने वाला सिद्धान्त आ गया । यहाँ वे 'सर्वजीव समान' और 'सर्व जीव - हिंसा समान' के सिद्धान्त वाले क्या उत्तर देंगे ? यदि वे ईसाइयों की उक्त दलील को मानते हैं तो उनकी बात जैन सिद्धान्त के विरुद्ध सिद्ध होती है । क्योंकि भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग सूत्र में हस्तितापसों की मान्यता को गलत बताया है, जो सभी जीवों की हिंसा को समान मानकर चलते थे । वे जंगलों में अनेक तापस मिलकर रहते थे। कई तापस घोर तपस्या करते थे और कठिन व्रतों का पालन करते थे । जब पारणे का दिन आता तो वे सोचते - यदि जंगल के कंदमूल और फल खाएंगे तो असंख्य और अनन्त जीव मरेंगे, अन्न खाएँगे तो भी अनेक जीवों की हिंसा होगी, सेर-दो सेर
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