SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तमसो मा ज्योतिर्गमय यह तो हुई उन जीवों की बात, जिन्हें हिंस्य ( हिंसा की जाती है, वे ) कहा जाता है । परन्तु हिंसाकर्ता, जो कि हिंसा करते हैं, वे भी एक सरीखे नहीं होते । मतलब यह है कि किसी हिंसाकर्ता के मन में क्रोध, अहंकार, द्व ेष, स्वार्थ, लोभ आदि के रूप में हिंसा की भावना बहुत तीव्र होती है, द्वेषादि की वृत्ति प्रबल होती है जबकि किसी की मध्यम होती है और किसी की मन्द होती है । कोरी द्रव्य हिंसा के समय किसी की कषायादिरूप हिंसा की वृत्ति होती ही नहीं है । यों हिंस्य और हिंसक की अनेक भूमिकाएँ हैं, इन दोनों के योग से ही हिंसा निष्पन्न होती है । सभी हिंसा एक समान नहीं ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है- क्या ये सब हिंसाएँ एक सरीखी होती हैं, एक ही श्रेणी की मानी जाती हैं, या इनमें कुछ अन्तर भी है । अगर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की होने वाली समस्त हिंसाएँ एक ही कोटि की मानते हैं, तब तो साग-सब्जी के खाने और मांस के खाने में में हिंसा का कोई तारतम्य नहीं होना चाहिए । जितना सब्जी के खाने में हिंसा का पाप लगता है, उतना ही मांस खाने में लगना चाहिए । किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं माना जाता, कोई हिंसा बड़ी मानी जाती है, कोई छोटी । तब सवाल यह है कि हिंसा में इस प्रकार के बड़े-छोटेपन का आधार क्या है ? किन बाँटों से हिंसा की कमोबेशी तौली जाती है ? कौन-से गज से नापना चाहिए ? मरने वाले जीवों की गिनती के आधार पर हिंसा की कमी - बेशी को नापते हैं अथवा हिंसक की हिंसामयी मनोवृत्ति की तीव्रतामन्दता के आधार पर हिंसा की न्यूनाधिकता नापते हैं ? आखिर वह मापदण्ड कौन-सा है; जिससे हिंसा की न्यूनाधिकता को आप नाप सकें ? २०० कुछ लोगों और खासकर राजस्थान के एक पंथ का मानना यह है कि जीव-जीव सब समान हैं, फिर चाहे एकेन्द्रिय पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक हों, चाहे द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक में से कोई भी जीव हो, सबकी आत्मा एक सी है । इसलिए उनको हिंसा भी एक सरीखी है । किसी प्राणी की जिन्दगी का मूल्य कम क्यों आंका जाय ? एकेन्द्रिय की हिंसा भी हिंसा है और पंचेन्द्रिय की हिंसा भी । जब दोनों प्रकार की हिंसाएँ हिंसा की दृष्टि से एक समान हैं, तब एक की हिंसा को कम और दूसरे की हिंसा को ज्यादा क्यों माना जाय ? सभी हिंसाएँ एक बराबर मानी जानी चाहिए ? ' सर्वजीव समान' सिद्धान्त वालों के सामने प्रश्न यह है कि जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy