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हिंसा-अहिंसा की परख १६९ प्रमाद या अशुभयोग नहीं है, हिंसा का दुःसंकल्प नहीं है, इस कारण भावहिंसा नहीं होती। और भावहिंसा ही वास्तविक हिंसा है। भावहिंसा ही पापकर्मबन्ध का कारण होती है, द्रव्य हिंसा नहीं। अतः हिंसादोष का भागी न होने के कारण वह व्यक्ति हिंसा का फलभागी नहीं होता। अल्पहिंसा : महाफल; महाहिसा : अल्पफल __कई बार यह देखा जाता है क' किसी ने एक ही प्राणी की हिंसा की, किन्तु वही हिंसा बहुत अधिक दुःखद फलदायिनी बनती है; जबकि दूसरी ओर इससे विपरीत स्थिति देखी जाती है। वह हिंसा तो अनेक प्राणियों की करता है, किन्तु फल उसका इतना अधिक दुःखद नहीं मिलता, स्वल्पफल मिलता है। हिंस्य और हिंसक का वर्गीकरण
इस संसार में असंख्य प्रकार के जीव हैं और वे असंख्य प्रकार के जीव भी अगणित हैं । उनमें कोई एकेन्द्रिय है, कोई द्वीन्द्रिय है, कोई त्रीन्द्रिय है, कोई चतुरिन्द्रिय और कोई पचेन्द्रिय है। इसके अतिरिक्त कोई हाथी, गेंडे, महाकाय मत्स्य, ऊँट जैसे स्थूल शरीर वाले प्राणी हैं, तो कोई कुन्थुआ, चींटी आदि जैसे छोटे शरीर वाले हैं। वनस्पतिकायिक जीवों में निगोद के जीव सूई की नोंक पर आए उतने छोटे-से खण्ड में अनन्त-अनन्त रहते हैं।
यह जो जीवों का वर्गीकरण किया गया है, वह इस दृष्टि से कि अहिंसा का साधक पहले यह जान ले कि संसार में कितनी किस्म के जीव हैं, जिनकी हिंसा से मुझे बचना है। अर्थात् हिस्य जीवों की पहिचान हो जाय तो उनकी हिंसा से अहिंसक अपने आपको बचा सकता है, सावधान रह सकता है।
यह भी समझ लेना आवश्यक है कि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का यह वर्गीकरण जीवों के शरीर की रचना, उनकी चेतना के विकास तथा सुख-दुःख-संवेदना की न्यूनाधिकता के आधार पर किया गया है । जीवों में ज्यों-ज्यों इन्द्रियों और प्राणों की वृद्धि होती जाती है त्यों-त्यों उत्तरोत्तर चेतना का विकास तथा सुख-दुःख संवेदन भी अधिकाधिक होता चला जाता है। १ एकस्याल्पा हिंसा, ददाति काले फलनल्पम् । . अन्यस्य महाहिंसा, स्वल्पफला भवति परिपाके ।। -पुरुषार्थ० ५२
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