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________________ १६८ तमसो मा ज्योतिर्गमय हिंसा का लक्षण भी यही है । जो हिंसा से विरत होकर व्रतबद्ध हो जाता है, वह अपने मन-वचन काया का प्रयोग यतना एवं सावधानी से करता है । अगर यह सिद्धान्त नहीं माना जाएगा तो एक चींटी है, वह कोई युद्ध नहीं लड़ती, न किसी को सताने का सोच सकती है और न ही मारने की । ऐसी दशा में क्या वह अहिंसक मानी जाएगी ? कदापि नहीं । इसी प्रकार एक अबोध बालक है, अथवा बैल, कुत्ता, बिल्ली आदि जानवर हैं, वे सोच नहीं सकते कि क्या हिंसा है, क्या अहिंसा है ? न वह इतनी हिंसा ही करता है, न हिंसा के परिणाम उनमें आते हैं, न अहिंसा के, ऐसी स्थिति में ये अहिंसावती नहीं कहे जा सकते, क्योंकि समझबूझकर हिंसात्याग करने का संकल्प नहीं लिया या व्रत ग्रहण की प्रतिज्ञा भी नहीं ली । ऐसी दशा में अप्रमत्तयोग कहाँ रहेंगे ? जब अप्रमत्तयोग नहीं रहेंगे तो हिंसा अवश्यमेव होती रहेगी ? क्योंकि जहाँ प्रमत्तयोग होगा, वहाँ हिंसा होगी । करे कौन भरे कौन ? 1 कई बार ऐसा होता है कि एक व्यक्ति स्वयं बाहर से हिसा करता हुआ दिखाई नहीं देता, किन्तु सारा हिंसा का संचालन या हिंसा का दुःसंकल्प अथवा हिंसा की सारी प्रेरणा वह व्यक्ति करता है, वहाँ हिंसा का फल बाहर से हिंसा न करने वाले, किन्तु अन्दर से मन-वचन से हिंसा की प्रेरणा करने वाले को मिलता है । उदाहरण के तौर पर एक राजा है, वह युद्ध में स्वयं लड़ने नहीं जाता, वह सेनापति और सेना को लड़ने भेजता है । ऐसी स्थिति के हिंसा का सारा संकल्प राजा करता है, युद्ध की योजना भी वही बनाता है, युद्ध में सेना को झौंकता है । अतः बाह्यहिंसा ( द्रव्यहिंसा) न करते हुए भी भावहिंसा तथा द्रव्यहिंसा कराने के फल का भागी बनता है । हिंसा करता हुआ भी हिंसाफल भागी नहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति बाह्यहिंसा करता प्रतीत होता है, फिर भी हिंसा के फल का भागी नहीं होता । इसका कारण यह है कि उसके निमित्त से द्रव्य हिंसा होती है । क्योंकि उसकी प्रवृत्ति के पीछे राग, द्वेष, कषाय, १ अविधायाऽपि हिंसां, हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाऽप्यपरो हिंसा, हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ - पुरुषार्थ. ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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