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________________ हिंसा-अहिंसा की परख १६५ पर-वस्तु-आश्रित नहीं होती। वह जब भी होगी आत्मा के आश्रित होगी। क्योंकि यदि आप कहेंगे, तलवार, लाठी, चाकू आदि से हिंसा होती है, तो यह बात सिद्धान्त की दृष्टि से यथार्थ नहीं है। तलवार अपने आप में न कोई हिंसा करती है, न अहिंसा ही। तलवार आदि ये सब चीजें जड़ हैं। तलवार शस्त्र है तो कलम भी कम नहीं है । कलम से भी गलत लिखने पर वह भी शस्त्र का काम करती है, उससे भी बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ होती हैं, हुई हैं । इसलिए ये कोई भी उपकरण कुछ करते हैं तो प्रयोगकर्ता द्वारा ही करते या किये जाते हैं। शरीर और इसके अंगोपांग भी अपने आप में न हिंसा करते हैं, न अहिंसा ही। तन, वचन और मन प्रयोग करने वाले आत्मा पर निर्भर है। इसलिए हिंसा आत्मा के दुष्परिणामों से होती है। क्योंकि हिंसा का मूल स्थान या मूलाधार रागादि दुष्परिणाम हैं। इसलिए अहिंसा के साधक को परिणामों की शुद्धि की लिए प्रयत्न करना चाहिए। तभी वह भावहिंसा से छुटकारा पा सकेगा । आत्मा में दुष्परिणामों के आने पर वही हिंसा करती है। आचार्य भद्रबाह ने इसी को स्पष्ट किया है-'आत्मा अगर विवेकी है, सजग है, सावधान है, अप्रमत्त है तो वही अहिंसक है और आत्मा अगर अविवेकी, अजागृत, असावधान एवं प्रमादयुक्त है, तो वह हिंसक है । हिंसा से अविरत हिंसक या अहिंसक ? एक प्रश्न कई लोगों के दिमाग में चक्कर काटता रहता है, वह यह है कि हिंसा तो जीवन के हर मोड़, हर प्रवृत्ति एवं हर श्वास में लगती ही रहती है, फिर इससे विरत होने या अहिंसावत लेने की क्या तुक है ? क्यों न बिना व्रत लिए ऐसे ही अहिंसा का जितना पालन किया जाय, पालन करें? इसके उत्तर में जैन दर्शन कहता है कि जो ऐसा सोचकर हिंसा से विरत नहीं होता है व्रत-ग्रहण नहीं करता है, वह व्यक्ति हिंसा करे, चाहे न करे, प्रमत्त होने के कारण हिंसा का भागी होता रहता है। इसी प्रकार हिंसा का परिणाम (भाव) करना भी हिंसा है, चाहे बाह्य हिंसा हो चाहे न हो । क्योंकि दोनों जगह मन-वचन-काया खुले रहते हैं, प्रमत्त रहते हैं । और १ आया चेव अहिंसा, आया हिंसति निच्छओ एसो। जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ।। २ हिंसायामांवरभणं हिंसा, परिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात् प्रमत्तयोगे, प्राण-व्यपरोपणं नित्यम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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