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१९२ तमसो मा ज्योतिर्गमय अवश्य ही बचना चाहिए । ज्ञानी पुरुष कहते हैं-जब किसी भी प्राणी का जीवन-मरण तुम्हारे हाथ में नहीं है, तब व्यर्थ ही क्यों किसी को मारने का दुःसंकल्प करते हो ? अपनी जिन्दगी अहिंसा की शोतल छाया में व्यतीत करो।
अब आइए, दूसरे प्रकार के भंग या विकल्प पर । वह है--जिसमें द्रव्य हिंसा तो दृष्टिगोचर हो, पर भाव हिंसा बिलकुल न हो। अहिंसा का एक साधक अपने मन में आत्मौपम्य की भावना लेकर चल रहा है । वह अत्यन्त सावधानी से फूंक-फूंक कर कदम रखता है, किसी भी जीव को सताने, मारने या हानि पहुंचाने की उसकी कतई भावना नहीं है, न उसके मन के किसी कोने में चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते, यानी प्रत्येक प्रवृत्ति करते हए किसी भी प्राणी के प्रति द्वष, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या, छल, घृणा, लोभ या स्वार्थ रूप हिंसा की वृत्ति है, फिर भी जब तक शरीर है, तब तक शरीर का निर्वाह करने या शरीर से संयम यात्रा करने या धर्म पालन करने के लिए हलचल करते समय किसी न किसी सूक्ष्म जीव की हिंसा हो ही जाती है। वह अनिवार्य है। एक पलक झपकाने में असंख्य जीव मर जाते हैं । जब तक आत्मा और शरीर परस्पर सम्बद्ध हैं, तब तक तेरहवें गुणस्थान तक भी अंशतः हिंसा होती रहती है। जैन सिद्धान्त के अनुसार केवलज्ञानियों (वीतरागों) से भी काययोग की प्रवृत्ति के कारण कभी-कभी पंचेन्द्रिय जीवों तक की हिंसा हो जाती है, परन्तु इस प्रकार की हिंसा करने की उनकी भावना जरा भी नहीं होती, इसलिए साम्परायिकी क्रिया (जो कषायों के कारण होती है) उन्हें जरा भी नहीं लगती, उन्हें सिर्फ ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है।
मतलब यह है कि केवलज्ञानियों से भी हिंसा हो जाती है, वे हिंसा करते नहीं । केवलज्ञानी कहीं विहार (पदयात्रा) कर रहे हैं, रास्ते में नद आ गई । मान लो, नदी में पानी कम है, नदी पर वर्तमान युग की तरह कोई पूल नहीं बना हुआ है, ऐसी हालत में वे शास्त्रीय विधि के अनुसार पैदल चलकर उस नदी को पार करेंगे। अगर जल अधिक हुआ तो नौका में बैठकर पार करेंगे, परन्तु चाहे वे पैदल नदी पार करें या नौका से, जीवहिंसा से बचना तो सर्वथा असम्भव है। जलकायिक जीवों के अलावा जलाश्रित रहने वाले पंचेन्द्रिय जल जन्तु उस हरकत से मर भी सकते हैं। शास्त्र पुकार पुकार कर कहते हैं कि ऐसे उच्च साधक को, जो साधना की पराकाष्ठा पर
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