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________________ हिंसा-अहिंसा की परख १६३ पहुँचा हुआ है, शरीर के निमित्त होने वाली हलचलों के कारण जो जीवहिंसा हुई है, उससे सातावेदनीय कर्म-पुण्य का ही बंध होता है। पापकर्म का बन्ध नहीं। ओघनियुक्ति में आचार्य शिरोमणि भद्रबाहु स्वामी ने इस सम्बन्ध में सुन्दर सैद्धान्तिक निर्णय दिया है उच्चालिअम्मि पाए, इरियासमिअस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज तं जोगमासज्ज ॥७४८॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमो वि देसियो समए। अणवज्जो उवओगेणं, सव्वभावेण सो जम्हा ॥७४६॥ एक उच्च साधक ईर्यासमिति से युक्त है, वह जब कहीं विहार करने (चलने) के लिए अपने पैर उठाता है, पुनः जमीन पर रखता है, इसमें काय योग के निमित्त से कोई त्रस जीव दबकर मर भी जाता है, मगर उसे उस निमित्त से तनिक-सा बन्ध भी सिद्धांत में निर्दिष्ट नहीं है । क्योंकि वह उच्च साधक सर्वथा उपयोगपूर्वक निरवद्य (मन में सावध विकल्प से रहित) होकर गमन क्रिया में प्रवृत्त होता है; इसलिए निष्पाय है । __ आशय यह है कि जहाँ कषाय, प्रमाद एवं दुष्प्रयुक्त मन-वचन-काया हैं, वहीं हिंसा होती है । जिसके अन्तर्मन में क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, राग-द्वेष न हो, सावधानी पूर्वक यत्नाचार से प्रवृत्ति करता हो और मनवचन-काया में कोई दुष्ट संकल्प, वचन या चेष्टा न हो, वहाँ हिंसा नहीं होती । हिंसा का लक्षण-'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा'-यानी प्रमादपूर्वक मन-वचन-काया के दुष्टयोगों से रागद्वेष-कषाय की वृत्ति से किसी के द्रव्य-भाव-रूप प्राणों का नाश करना हिंसा है । तात्पर्य यह है कि हिंसा का मूलाधार कषाय, रागद्वषादि से युक्त संकल्प एवं प्रमाद है । अतः जो साधक कषायादि से रहित संकल्प लेकर यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है, उसके शरीर से हिंसा हो जाती है, वह वास्तव में हिंसा ही नहीं है, नाममात्र की हिंसा है, जिसे द्रव्यहिंसा कहते हैं । किसी के द्वारा किसी जीव का मर जाना ही हिंसा नहीं है। १ यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं, सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४२ २ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणाऽपि । नहि भवति जातु हिंसा, प्राणव्यपरोपणादेव ।। -पुरुषार्थ० ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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