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________________ हिंसा-अहिंसा की परख १६१ राजा ने उसे और धंधा देने, नकद रुपये सहायतार्थ देने तथा सारे परिवार के भरणपोषण करने का आश्वासन दिया। पर वह अपनी बात से टस से मस न हआ। आखिर राजा ने उसे दण्डित करने की धमकी दी, फिर भी वह नहीं माना । तब राजा ने उसे तहखाने के एक कोठे में डाल देने की सजा दी, ताकि वहाँ न तो भैंसे होंगे, और न ही वह उनकी हत्या कर सकेगा। इस पर भी काल सौकरिक भयभीत न हुआ। अपनी ही बात पर अड़ा रहा । अतः राजपुरुषों ने राजाज्ञा के अनुसार उसे तहखाने के एक कोठे में डाल दिया और कहा-“यहीं पड़ा रह, या राजा की बात मान जा।" फिर भी राजा की बात कालसौकरिक ने नहीं मानी। आखिर उसने अपनी जिद पूरी करने के लिए अपने शरीर पर जमे हुए मैल को पसीने के साथ मिला कर बट्टियाँ बनाई और मन से कल्पना की-"यह भैंस काटा, यह मारा।" बाहर से देखने वाले को तो कोई भंसा कटा या मरा हआ दिखाई नहीं दे रहा था। परन्तु काल सौकरिक ने तो अपनी ओर से विकल्प करके भैंसे मार ही दिये थे। यहाँ द्रव्य हिंसा बिल्कुल गायब थी, पर भाव हिंसा का ही एकमात्र साम्राज्य था, जिसने काल सौकरिक को पाप कर्मों के ढेर होने से नरकगति प्रदान की। अब सुनिये, तन्दुलमच्छ की शास्त्रीय कथा । तन्दुलमच्छ पांचों इन्द्रियों वाला जलचर मत्स्य है, उसका शरीर सिर्फ चावल के दाने जितना होता है, और वह महाकाय मत्स्य की भौंह या कान पर बैठा रहता है। जब भी कोई जलचर जन्तु उस महाकाय मत्स्य के सामने आता है और सरसराता हुआ चला जाता है, तब वह बैठा-बैठा सोचा करता है --- "ओफ! यह मत्स्य कितना आलसी और बुद्ध है। इतने सारे जल जन्तुओं को वह यों ही जाने देता है। अगर मैं इसकी जगह होता तो एक को भी जाने नहीं देता, सबको निगल जाता!" परन्तु आश्चर्य यह है, कि यह हलचल उसकी मन की दुनिया में ही होती है, बाहर तो वह कुछ भी नहीं कर पाता, खून की एक बंद भी नहीं बहा सकता, न किसी जलचर को निगल सकता है। किन्तु मन की इसी दुर्विकल्पों की परम्परा के कारण अन्तर्मुहूर्तभर की नन्ही-सी जिन्दगी में वह भयंकर भाव हिंसाजनित पापकर्म कर लेता है, जिसके फलस्वरूप मर कर वह सातवीं नरक की यात्रा करता है। उपर्युक्त दृष्टान्तों के अनुसार अहिंसा के साधकों को इस भाव हिसा के राक्षसी दुर्विकल्पों से, खासतौर से तन्दुलमत्स्य के-से दुश्चिन्तन से तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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