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________________ १८८ तमसो मा ज्योतिर्गमय साधारण में धारणा यही है कि द्रव्य हिंसा ही हिंसा है, क्योंकि हिंसा के नाम पर प्रत्यक्ष रूप में द्रव्य हिंसा ही सामने आती है, भाव हिंसा तो पीछे छिपी हुई होती है । किन्तु एक बात निश्चित है कि मन में कोई भले ही भ्रान्त धारणा बना ले, लेकिन जब तक कोई व्यक्ति सकल्पपूर्वक किसी को शारीरिक हानि नहीं पहुँचाता, तब तक वह हिंसा का दोषी नहीं माना जाता । जो कुछ भी हिंसा हुई है, वह उसने की नहीं है, हुई है। हिंसा होना एक बात है और हिंसा करना दूसरी बात है । हिंसा करने में तो संकल्प शामिल होता है, हिंसा होने में संकल्प साथ में नहीं होता । भगवद् गीता में इसी आशय का समर्थन किया गया है यस्य नाsहंकृतो भावो, बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्त्वाऽपि स इमांल्लोकान्, न हन्ति, न निबध्यते ॥ जिसके मन में 'हिंसा करू" ( मार दूं, पीट दूं, हैरान कर दूँ ), ऐसा अहंकर्तृक भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि राग द्वेषादि में लिप्त नहीं होती । उससे कदाचित् इन लोकों के प्राणियों का हनन हो भी जाता है, तो भी हन्ता या हिंसा दोष का भागी नहीं माना जाता है, न पाप बन्धन से बद्ध होता है। उक्त कथन का भावार्थ भी जैन सिद्धान्त से मिलता-जुलता है कि हिंसा का मूलाधार प्रमाद, कषाय और अशुभ मन-वचन-काया का योग है । जो साधक कषाय भाव में न हो, यतनापूर्वक प्रवृत्ति कर रहा है, और मन में कोई मारने आदि का अशुभ संकल्प नहीं है, वचन से भी हिंसाजनक दुर्वचनों का प्रयोग नहीं करता है, काया से भी जान-बूझकर दुश्चेष्टा नहीं करता है, सहज भाव से प्रवृत्ति कर रहा है, फिर भी उसके शरीर से यदि हिंसा हो जाती है, तो वह केवल औपचारिक (द्रव्य) हिंसा है, भाव हिंसा नहीं । ऐसी निखालिस द्रव्य हिंसा प्राणविराधनरूप होते हुए भी हिंसा नहीं मानी जाती । जहां मन, वचन, काया का दुष्प्रयोग किया गया हो, उससे किसी का प्राणातिपात किया गया हो, वहाँ हिंसा होती है । " १. भगवद् गीता अ. १८ २ यदा प्रमत्तयोगो नास्ति, केवलं प्राणव्यपरोपणमेव, न तदा हिंसा | उक्तञ्च - वियोजयति चासुभिर्नच वधेन संयुज्यते । १३ -तत्त्वार्थ राजवार्तिक ७, ३ “मण - वयणकायेहिं जोगेहिं, दुप्पउत्तेहिं जं पाणववरोपणं कज्जइ सा - दशवैकालिक चूर्णि अ. १ हिंसा ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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