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हिंसा-अहिंसा की परख १८६ हिंसा के चार भंग
जैन दृष्टि हर विचाराधारा को अनेकान्त की तराजू पर तोलती है, एकान्तरूप से किसी बात का विधान या निषेध नहीं करती। पूर्वोक्त द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा की दष्टि से आचार्यों ने ४ भर्गों (विकल्पों) का सुन्दर विश्लेषण किया है । आगम की भाषा में इसे चौभंगी कहते हैं । वह यों है
(१ भाव हिंसा हो, किन्तु द्रव्य हिंसा न हो । (२) द्रव्य हिंसा हो, लेकिन भाव हिंसा न हो । (३) द्रव्य हिंसा भी हो, भाव हिंसा भी हो। (४) न द्रव्य हिंसा हो और न भाव हिंसा हो। ...
इन चारों विकल्पों से हिंसा और अहिंसा की पूर्णतया परख हो जाती है । जैसे थर्मामीटर से बुखार का पता लग जाता है, शरीर की गर्मी का नापतौल हो जाता दे, वैसे ही इस चौभंगी से हिंसा की गर्मी का पता लग जाता है. अगर हिंसा का ज्वर तीव्रतर है, तब तो समझ लो द्रव्य हिंसा के साथ भाव हिंसा भी है, अगर हिंसा का ज्वर इतना तीव्र नहीं है तो अकेली भाव हिंसा है । इसी प्रकार हिंसा ज्वर के पाइंट से अगर नीचे की डिग्री पर है, यानी भाव हिंसा मिश्रित नहीं है तो केवल द्रव्य हिंसा है। और जिसमें हिंसा का ज्वर बिलकुल नहीं है, न द्रव्य हिंसा है, न भाव हिंसा है, वहाँ हिंसा बिलकुल निल है, पूर्ण अहिंसा है।
हाँ तो, पहला भंग है, जहाँ सिर्फ भाव हिंसा हो, द्रव्य हिंसा न हो।
एक व्यापारी था। उसकी इच्छा परदेश में व्यापार करके कुछ धन कमाने की थी। देश में व्यापार चलता नहीं था । जो भी व्यापार करता, उसमें घाटा लग जाता । एक दिन अपने साथ दो हजार की पूँजी लेकर घर से चल पड़ा । प्राचीनकाल में रेल-मोटरें थी नहीं, या तो पैदल चलना पडता था या बैलगाड़ी से । इतनी पंजी अगर बैलगाड़ी से परदेश जाने में लगा देता तो व्यापार कहाँ से करता। अतः उसने पैदल ही चलने का निश्चय किया। लगभग चार महीने में वह बंगाल पहुँचा । वहाँ उसके प्रान्त का निवासी एक व्यापारी मिल गया। उससे इसने व्यापार धंधे के बारे में बातचीत की । वह बड़ा चालाक था। उसे किसी तरह से पता लग गया कि इसके पास दो हजार रुपये हैं । अनः विश्वास में लेने के लिए उसने रुपये के बारे में कुछ नहीं कहा। यही कहा-"जूट खरीद लो, कुछ अर्थराशि मैं तुम्हें देता हूँ, करो व्यापार ।" कुछ ही दिनों में उस चालाक व्यापारी ने
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