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हिंसा-अहिंसा की परख
" आपका दुश्मन कौन है ?" आगन्तुक ने पुनः प्रश्न किया । सुकरात ने उसी मुद्रा में उत्तर दिया- "मेरा दुश्मन भी मेरा मन
ही है ।"
प्रश्नकर्ता ने जब स्पष्टीकरण मांगा तो उन्होंने कहा - "मेरा मन इसलिए मेरा साथी है कि यही मुझे सच्चे मित्र की तरह सत्पथ पर ले जा सकता है, और मेरा मन ही मेरा दुश्मन इसलिए है कि यही मुझे उत्पथ बुरे मार्ग की ओर ले जा सकता है । मन ही सर्वेसर्वा है ।"
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fasaर्ष यह है कि भाव हिंसा ही सबसे भयंकर हिंसा है, अकेली द्रव्य हिंसा तो नाम मात्र की हिंसा है। भाव हिंसा के साथ मिल कर ही वह पापवर्द्धक बनती है । अतः धार्मिकता या दार्शनिकता की दृष्टि से भाव हिंसा ही अग्रगण्य का आसन लेती है, द्रव्य हिंसा तो भाव हिंसा को कार्यरूप में परिणत करके भयंकर बनती है । अकेली द्रव्य हिंसा कोई इतनी भयंकर चीज नहीं ।
द्रव्य हिंसा का स्वरूप
प्रश्न होता है कि भाव हिंसा ही जब इतनी भयंकर और जबर्दस्त है तो द्रव्य हिंसा को क्यों हिंसा माना गया । द्रव्य हिंसा का असली स्वरूप जानने पर ही इसका समाधान हो जाएगा । द्रव्य हिंसा का अर्थ है - आँखों से प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली हिंसा | आपने देखा कि एक आदमी दूसरे प्राणी को मार रहा है, पीट रहा है, उसे हानि पहुँचा रहा है, दम घोंट रहा है, लाठी आदि से प्रहार कर रहा है, थप्पड़-मुक्के भी मार रहा है, अस्त्र-शस्त्र से प्रहार करता है या जान से मार डालता है, शारीरिक कष्ट पहुँचाता है, अंग-भंग भी कर देता है, गाली और अपशब्दों से अपमानित भी करता है: तो ऐसी स्थिति में द्रव्य हिंसा तो है, पर इस द्रव्य हिंसा के साथ भाव हिंसा पहले से मिली हुई है । भाव हिंसा के परिणामस्वरूप जो भी इस प्रकार का सक्रिय रूप आता है, वह सब द्रव्य हिंसा की कोटि में आता है । किन्तु द्रव्य हिंसा का एक रूप ऐसा भी होता है, जहाँ वह निखालिस होती है, उसके साथ भाव हिंसा नहीं होती, वह इतनी उग्र नहीं होती, न ही जिस विवेकी व्यक्ति से वह हिंसा हो जाती है, वह इतना उग्र होता है, वह सहज भाव से विवेकपूर्वक अपनी चर्या करता है, प्रवृत्ति करता है, उसके मन में किसी के मारने-पीटने सताने या नुकसान पहुँचाने का संकल्प नहीं होता, फिर भी जीव मर जाते हैं, कुचल भी जाते हैं, साधारण तकलीफ भी पाते हैं । जन
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