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________________ १८६ तमसो मा ज्योतिर्गमय ने अथ से इति तक प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का सारा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। अब तो श्रेणिक के कहने की आगे कोई गुंजाइश ही न थी। कहानी आगे अचानक उनके भावों के परिवर्तन और उसके फलस्वरूप स्वर्ग और फिर केवलज्ञान और मोक्ष तक का वर्णन करती है। मुझे आपके सामने संक्षेप में मूल मुद्दे की बात कहनी थी कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने बाहर से कोई हथियार नहीं लिये, न बाह्य हिंसा की, रक्त की एक बूंद भी नहीं बहाई । पर मन ही मन भयंकर भाव हिंसा कर ली, जिसके पापकर्मों का घोरतम प्रतिफल उन्हें मिलना था। जो हिंसानन्दी लोग दूसरों का कत्ल करने के लिए शस्त्रास्त्रों का निर्माण करते हैं, वे बहुधा पहले ही अपनी हानि कर लेते हैं, अपने शत्रुओं का या हिंस्य जानवरों का वध तो बाद में कर पायेंगे या नहीं, यह अलग बात है। वास्तव में देखा जाए तो द्रव्य हिंसा की जननी भाव हिंसा ही है । क्योंकि वही हिंसा को तीव्र, तीव्रतर बनाती है, अपने तीव्र-तीव्रतर कषायों या रागद्वेषों के हथियारों द्वारा । वृत्तिगत जो हिंसा है, वही भाव हिंसा है, और उसी से लड़ना है, अहिंसा के साधक को । इसीलिए आत्मा को ही इस संग्राम का मैदान बना कर इसमें उठने वाली रागाद्वषादि वृत्तियों से जूझना है । यही बात नमि राजर्षि ने कही थी-"अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ। अपनी आत्मा में डटे हए विकारों एवं हिंसावत्ति से लड़ो, बाह्य शत्रुओं से लड़ने से क्या मतलब है ? यदि इस युद्ध में विजय प्राप्त हो जाती है तो बाहर के शत्रु तो स्वतः शान्त हो जायेंगे। भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा का मानदण्ड मन है। मन के द्वारा ही बन्धन और मुक्ति होती है। तभी तो भारतीय दार्शनिकों को कहना पड़ा'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः२ मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण मन ही है। एक बार सोक्रेटीस (सुकरात) से किसी ने प्रश्न किया- "इस जगत् में आपका साथी कौन है ?" सुकरात ने दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया-“मेरा साथी मेरा मन १ उत्तराध्ययन सूत्र ६/३५ २. मैत्रा० आरण्यक ६/३४-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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