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हिंसा-अहिंसा की परख १८५ को पकड़ने और मारने का था, इसलिए हिंसा तो हो ही गई । सिद्धान्त यह है कि जीव चाहे मरे या न मरे, रागादिवश हिंसा का संकल्प आ गया तो हिंसा हो ही गई, और वह भाव हिंसा हुई।
वास्तव में, मनुष्य प्रतिक्षण द्रव्य हिंसा नहीं कर सकता । किसी भी प्राणी को प्रतिक्षण उत्पीडित करना उसके लिए असंभव है। विरोधी यदि दुर्बल है तो उस पर कुछ समय के लिए वह हावी हो सकता है, जोर-आजमाई कर सकता है। किन्तु यदि प्रतिपक्षी प्रबल है, अधिक शक्तिशाली है तो मनुष्य चाहते हुए उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। भले ही वह असफलता की दशा में कुढ़ता रहे, मन ही मन गालियाँ देता रहे, लेकिन बाह्य रूप से उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। फिर भी दूसरे का नाश करने की जो दुर्भावना उसके मन में उठी है, वह स्वयं का नाश करने वाली भाव हिंसा तो है ही।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि वन में ध्यानस्थ खड़े थे । अचानक ही उनके कानों में एक आवाज टकराई-'यह सात्रु कैसा? यह तो महास्वार्थी है ! इसने अपने छोटे-से पुत्र को जिस सामंत के हाथ में सौंप कर दोक्षा ली है, वह सामंत दूसरे राजा से मिलकर उसका काम तमाम करवा कर स्वयं राजगद्दी पर बैठना चाहता है ! धिक्कार है इसे !"बस, इन शब्दों ने प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की आत्मा में उथल-पुथल मचा दी। वे अपना भान भूल गए और लगे मन में उधेड़बुन करने-.."क्या मुझे उन दुष्टों ने कमजोर समझ रखा है! मेरे जीते जी कैसे वे राज्य ले लेंगे । मैं अभी एक-एक को मार गिराता हैं।" यों सोच कर मन से उन्होंने शस्त्रास्त्र बना लिये और मन से ही शत्र पर शस्त्र प्रहार करने लगे-“यह मारा, यह काटा !" बस, मन की दुनिया में घनघार संग्राम छेड़ दिया राषि ने। पर नतीजा? नतीजा भगवान महावीर के मुख से मगध सम्राट श्रेणिक ने सुना-"अगर इस समय प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का देह छूटे तो वे सीधे सातवीं नरक में जाएँ।" "भगवन् ! यह कैसी अटपटी बात कह रहे हैं । इतने महान् श्रमण और सातवीं नरक ! मेरे गले यह बात उतरी नहीं।" राजा श्रेणिक ने आश्चर्यचकित होकर कहा। _ इस पर सर्वज्ञ भगवान महावीर ने तथ्य को उजागर करते हुए कहा-“राजन् ! तुम ऊपर की क्रिया और शारीरिक चेष्टाओं को देख रहे हो, ऊपर से तो वह परम शान्त लग रहे हैं, परन्तु उनके मन के भावों में जो महा हिंसा का ज्वार उमड़ रहा है, उन्हें मैं पढ़ रहा हूँ।" और भगवान्
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