SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ तमसो मा ज्योतिर्गमय बीमार के साथ सहानुभूति की वाणी भी प्रगट न कर सके । वास्तव में ऐसा व्यक्ति भाव-अहिंसा के टुकड़े-टुकड़े करके सिर्फ बाह्य अहिंसा के कलेवर को ढो रहा है । हृदय आत्मौपम्य से बहुत दूर होकर अहिंसा की श्मशान भूमि बन गया है । कोमल भावनाओं की हत्या करके वह अपने ही आत्मगुणों की हत्या कर रहा है। भाव हिंसा : अपने और दूसरों के लिए हानिकर ... शास्त्रकार अविवेकी बालजीवों के लिए यही बात कह रहे हैं कि वे लम्बे-चौड़े क्रियाकाण्ड करते दिखाई देंगे, कठोर तप से देह को सुखा डालेंगे, प्रत्येक कदम फूंक-फूंक कर रखेंगे, किन्तु उस बाह्य अहिंसा की तह में उनके अन्तर् में दूसरों के प्रति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार, द्रोह, छल-कपट, स्वार्थ, लोभ, क्रोध आदि के दुर्भाव धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं। अन्तःकरण में वे इस प्रकार की मलिनता रख कर दुःसंकल्पों के वशीभूत होकर अपने आत्मगुणों की हत्या (भाव हिंसा) करते रहते हैं। वे ऊपर से अहिंसा का बुर्का ओढ़ कर भाव हिंसा के शिकार बने लोकवंचना करते रहते हैं, जनता से सेवा-पूजा पाते रहते हैं। जब उनके अन्तर में क्रोध आता है तो क्षमा गुण की हत्या कर देते हैं, जब लोभ आता है तो सन्तोष विदा हो जाता है, माया आई तो सरल ।। का गला घोंट दिया जाता है, अहंकार आया तो जाति मद आदि के नशे में नम्रता का सत्यानाश हो गया। द्वष आया तो प्रेमभाव का संहार हो गया । इस प्रकार भाव हिंसा बुराइयों और दुर्गुणों की फौज लेकर आती है और आत्मगुणों की सेना को कुचल डालती है । सचमुच भाव हिंसा आत्मगुणों का संहार करने वाली शत्रु है । वह अंदर ही अंदर आत्मगुणों का सफाया कर देती है । जैसे टी. बी. के रोगी का शरीर बाहर से बहुत ही सुन्दर और पुष्ट दिखाई देता है, किन्तु अंदर से खोखला होता है, वैसे ही ऐसे तथाकथित द्रव्य-अहिंसक का जीवन बाहर से तो अहिंसा से पूर्ण एवं पुष्ट-सा लगता है, लेकिन अंदर से भाव हिंसा से खोखला हो जाता है ।। - एक मछुआ है, वह घर से मछली पकड़ने का जाल वगैरह लेकर चल पड़ता है, अचानक ही रास्ते में मूच्छित होकर गिर पड़ा या किसी कारणवश मछलियाँ न पकड़ सका, किन्तु उसका संकल्प निर्दोष मछलियों १ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायां । म्रियतां जीवो मा वा, धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ।। -पुरुषार्थ० ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy