________________
१७८ तमसो मा ज्योतिर्गमय शरीर से किसी को मारना, पीटना, कष्ट पहुँचाना, हैरान करना, प्राणों से रहित कर देना। परन्तु यह तो द्रव्य हिंसा है। यह हिंसा प्रायः प्रत्यक्ष होती है, इसलिए आम आदमी इसे हिंसा कह देता है । साथ ही यह फैसला भी दे देता है कि हिंसा के कारण इस व्यक्ति को पापकर्म का बंध हो गया। मगर तीर्थंकर कहते हैं कि केवल द्रव्य हिंसा के होने से ही पापकर्म का बंध हो जाता है, यह बात सिद्धान्त सम्मत एवं तथ्यपूर्ण नहीं है। इसका कारण यह है कि द्रव्य हिंसा में किसी के प्राणों का अतिपात तो होता है, लेकिन उसमें निमित्त केवल शरीर बनता है, मन को अशुभ प्रवृत्ति उसमें निमित्त नहीं होती । मनोयोग जब तक किसी प्रवृत्ति में न हो, तब तक वह प्रवृत्ति कर्मबन्ध का कारण नहीं बन सकती । तात्पर्य यह है द्रव्यहिंसा, वाह्यहिंसा है, उसमें बाह्यरूप प्राणातिपात अवश्य होता है, लेकिन उस प्राणघात के साथ हिंसा का संकल्प या राग-द्वेष का संकल्प नहीं जुड़ा है, इसलिए अन्दर से हिंसा नहीं है । और न ही कर्मबन्ध होता है। जैन सिद्धान्त की दृष्टि से कर्मबन्ध मन से होता है, शरीर से नहीं। शरीर से तो क्रिया होती है। इसीलिए कहा है-'परिणामे बन्धः'-अर्थात् बंध परिणाम से होता है। शरीर अपने आप में जड़ है, कोरा शरीर न तो विचार कर सकता है, न किसी प्रकार का संकल्प ही। इसलिए केवल शरीर से स्थूल दृष्टि से दृष्टिगोचर होने वाले प्राणघात के साथ न राग होता है, न द्वष ही। न ही उसमें कषाय होता है । इसलिए कर्मबन्ध होता ही नहीं। अगर अकेला शरीर कर्मबन्ध कर सकता हो, तब तो प्रत्येक जड़ पदार्थ-पत्थर, ईंट, मेज, कुर्सी आदि-से किसी का सिर फूट जाय या अंगभंग हो जाए या प्राणवियोग हो जाए तो उस जड़पदार्थ के भी कर्मबन्ध होना चाहिए । अतः जब पत्थर, ईंट आदि जड़ पदार्थों को कोई हिंसा नही लगती, तब शरीर को हिंसा क्यों लगेगी? वास्तव में हिंसा का संकल्प करने वाला राग-द्वेष-कषायग्रस्त मन ही है। शरीर तो फिर मन का अनुगामी बन जाता है । मूल कर्ता मन ही है।
एक लोटे में भांग बहुत तेज घोंट कर रखी हुई है, क्या लोटे को उस भांग का नशा चढ़ता है ? नहीं चढ़ता। क्योंकि भांग के साथ चेतना का कोई संयोग नहीं हुआ । यदि भांग का लोटा किसी मुर्दे के पेट में उड़ेल दिया जाय तो क्या वह उसे नशा चढ़ाती है ? वहाँ भी भांग नशा नहीं चढ़ाती । और न ही भांग का भरा हुआ लोटा हाथ में लेने या शरीर के भांग का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org