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________________ अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १७५ अहिंसापथ को अपनाकर सन्धि करना है, उसे पहले ही क्यों न अपना लिया जाय? अहिंसा को अव्यवहार्य और हिंसा को व्यवहार्य समझने वाला व्यक्ति यह प्रतिज्ञा कर ले कि जो भी मेरे सम्पर्क में आएगा. उसको खोपड़ी फोड़े बिना न रहूँगा, तो क्या वह एक दिन भी अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह सकेगा? अहिंसा की प्रतिज्ञा लेकर तो काफी लम्बा जीवन व्यतीत किया जा सकता है, परन्तु हिंसा की प्रतिज्ञा लेकर तो शायद चन्द मिनट भी मुश्किल से बिताये जा सकेंगे। ठंडे दिल से सोचने पर आपको पता लगेगा कि आप अपने जीवन में सम्भवतः ६५ प्रतिशत कार्य तो शान्ति, प्रेम, सेवा, सहानुभूति एवं सहयोग से निपटाते हैं, शायद ५ प्रतिशत कार्यों में हिंसा, घृणा, द्वेष आदि से ही निपटाते हों। वस्तुतः अहिंसा के द्वारा ही जीवन व्यवहार चलाया जा सकता है। वास्तव में अहिंसा मानव जाति को सुख-शान्ति का वरदान देने आई थी । परन्तु आज हम देखते हैं कि मनुष्य को प्रायः अपनी काया से आगे कुछ सूझता नहीं। उसकी हत्तंत्री के तार पूरी सृष्टि से जुड़ने चाहिए थे। किसी और की पीठ पर पड़ने वाले कोड़ों की पीड़ा अकेले रामकृष्ण परमहंस को ही क्यों हुई ? अपने चारों ओर फैल रही वेदनाओं से वर्तमान अहिंसाधर्मी पसीजते क्यों नहीं ? वैज्ञानिक कहते हैं मनुष्य आज चांद को देख आया, मंगल को छने जा रहा है, परन्तु आत्मजगत् में इतना पंगु कैसे रह गया? मनुष्य की संवेदनशक्ति को लकवा क्यों मार गया ? उसकी करुणा पिघलती क्यों नहीं? अपने और अपनों तक ही आकर अहिंसा का रथ क्यों रुक गया ? आपके हाथ से लाठी छूट जाए, आप किसी की हत्या न करें, मनुष्य की तो क्या, किसी भी जीवजन्तु की भी नहीं ? आपके मुंह में निरामिष भोजन का कौर पहुँचे, आप कुछ दिन उपवास रख लें, खाने-पीने पर संयम रख लें-क्या महावीर का अहिंसा धर्म इतना-सा ही है ? इससे आगे अहिंसा की गाड़ी क्यों रुक गई ? कारण यह है कि भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ 'सर्वभूतात्मभूत' दृष्टि इसलिए देनी चाही थी कि मानव सहिष्णु, संवेदनशील एवं सहृदय बने, अपना अहंकार छोड़े, सहअस्तित्व को समझे-आप भी रहें, और अन्य प्राणी भी रहें । आप ऐसा कुछ न करें, जिससे दूसरे की हस्ती मिटे और दूसरा ऐसा काम न करे कि आप बुझ जाएँ। सम्पूर्ण प्राणि जगत् सह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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