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१७४ तमसो मा ज्योतिर्गमय व्यवहार में अहिंसा का आचरण किया है, उन्हें यह अनुभव हो गया कि यह शत प्रतिशत व्यवहार को चीज है, अव्यवहार्य नहीं ।
क्या अहिंसा के बिना सामाजिक, राष्ट्रीय एवं आध्यात्मिक जीवन एक क्षण भी चल सकता है ? क्या मनुष्य अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कदम-कदम पर संहार का डंका बजाता हुआ चलेगा? नहीं, कदापि नहीं चल सकता। यह तो हैवान, शैतान एवं दैत्य की गति है, मानव की यथार्थ गति नहीं है। क्या मनुष्य अपने जीवन पथ में किसी दूसरे के लिए कांटे बिछाकर ही चलता है ? क्या वह हर समय दूसरों से टकराता हुआ ही गति करता है ? जो लोग अहिंसा को उत्तम चीज मानते हुए भी इसे व्यवहार में उपादेय नहीं मानते हैं, उनसे पूछा जाय कि आखिर जीवन का सरल व्यवहार मार्ग कौन-सा है ? बचना और बचाना, स्वयं सुख-शान्ति से जीने और जिलाने का मार्ग ही व्यवहारपथ है, यही वास्तविक अहिंसा है। स्वयं उलझने और टकराने, तथा स्वयं बर्बाद होने और दूसरों को बर्बाद करने का पथ हिंसा का मार्ग है। भला, कौन मूर्ख होगा, जो जानबूझकर हिंसा को व्यवहारमार्ग बनाएगा? अगर स्थिर मन मस्तिष्क से सोचो तो वह स्वयं जान जाएगा कि अपना दैनिक व्यवहार वह हिंसा के बजाय अहिंसा से ही अधिक चलाता है। क्या घर में छोटा-सा संघर्ष हो जाता है तो कानून के तीरकमान लेकर न्यायालय के द्वार खटखटाए जाते हैं ? या परिवार की कोई गुत्थी उलझ गई तो क्या डंडे से सुलझाई जाती है ? कदापि नहीं। अधिकांश मसले अहिंसक उपायों से ही हल किये जाते हैं। परिवार में जैसे अहिंसा और प्रेम से प्रायः हर समस्या सुलझाई जाती है, वैसे ही समाज और राष्ट्र में भी सुलझाई जा सकती है ।
जो लोग हिंसा का कठोर मार्ग लेते हैं, वे भी अन्त में ऊबकर अहिंसा की शरण में आते हैं। सम्राट अशोक ने हिंसा के कठोर मार्ग का अनुसरण करके कलिंग पर अचानक बहुत बड़ी सेना लेकर चढ़ाई कर दी। लाखों मनुष्यों का संहार किया। किन्तु जब अशोक ने स्वयं अपनी आँखों से उस युद्ध के भयंकर परिणाम देखे तो उसे एकदम विरक्ति हो गई युद्ध से । सम्राट अशोक के हृदय में अहिंसादेवी विराजमान हो गई और उसने कलिंग नरेश को जीता हुआ राज्य वापिस लौटा दिया। सदा के लिए युद्ध को विदाई दे दी । क्या कोई कह सकता है कि अहिंसा स्थायी सुख-शान्ति के व्यवहार के लिए उपादेय नहीं है ? लाखों-करोड़ों का संहार करके अन्ततोगत्वा जिस
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