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________________ १७२ तमसो मा ज्योतिर्गमय छूट गया है, सावधानीपूर्वक देहाभिमान रहित होकर लोकहितार्थ जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर एवं इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होतो हुई, लोक दृष्टि में देखी जाती है, तो भी वास्तव में वह हिंसा नहीं है । क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा कर्तृत्वाभिमान के बिना किया हुआ कर्म वास्तव में पापकर्म नहीं होता, इसलिए वह पुरुष पाप से बद्ध नहीं होता। सारांश यह है कि देहभाव छोड़कर देह से अलग होकर जीवनक्रिया करना ही प्राणियों से सर्वत्र व्याप्त संसार में अहिंसा-पालन का राजमार्ग है। अहिंसा के विषय में जैन धर्म के मर्मस्थल का स्पर्श करने से एक बात खासतौर से मालुम हो जाएगी कि जो भी कार्य, प्रवृत्तियाँ, चेष्टाएं, या हरकतें की जाती हैं, उन सबके मूल में हिंसा नहीं उठती है, न ही उनमें से अपने आप में कहीं पाप पैदा होता है। किन्तु उन प्रवृत्तियों के पीछे जो संकल्प हैं, भावनाएँ हैं वे कषाय या राग-द्वष-मोह-युक्त हैं, उन्हीं में हिंसा है, वहीं से पाप पैदा होता है । अगर किसी प्रवृत्ति के पीछे आपकी वृत्ति कषाय या रागद्वेषादि से युक्त नहीं है तो आपको उस प्रवृत्ति से भावहिंसादि एवं पापकर्म का बन्ध नहीं हो सकता । इसीलिए जब तीर्थंकरों से पूछा गया कि खाने-पीने में पाप है क्या ? तो उन्होंने यही कहा-नहीं, खाने-पीने में तो कोई पाप नहीं है, किन्तु यह बतला दो कि उसके पीछे बत्ति क्या है ? अगर तुम्हारा खाना अविवेकयुक्त है, केवल स्वाद एवं शरीर में शक्ति बढ़ाने के लिए खाते हो, अथवा यह विवेक नहीं है कि खाने के बाद शरीर का क्या उपयोग करना है, कर्तव्य की कोई भावना भी नहीं है तो समझ लो, तुम्हारा खाना हिंसा है; किन्तु खाने के पीछे विवेक है, कर्तव्य एवं सत्कर्म की भावना है, शरीर के उपयोग के सम्बन्ध में निर्णय है, तो तुम्हारा वह खाना अहिंसा एवं धर्म है । यही निर्णय जीवन की सभी क्रियाओं के सम्बन्ध में जैन धर्म का है। निष्कर्ष यह है कि अहिंसा के पालन के लिए जीवन यात्रा में इस प्रकार की सावधानी और जागरूकता रखकर चला जाय तो किसी भी कोटि के साधक के लिए अहिंसा अव्यवहार्य नहीं रहती । कई लोग कह देते हैं कि अहिंसा है तो अच्छी चीज, परन्तु व्यवहार में आने लायक नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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