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________________ अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १७१ वस्तुओं के प्रति राग और द्वेष या मोह और घृणा करते रहते हैं, वही हिंसा और तज्जनित पापकर्मबन्ध का कारण बनता है । अतः यदि हिंसा से बचना हो, पापकर्म से अपनी आत्मा को बचाना हो तो इष्ट पदार्थ के प्रति राग या मोह एवं अनिष्ट के प्रति द्वष या घृणा अथवा क्रोधादि चार कषाय न करो । जल में कमल की तरह निर्लेप रहो। इस प्रकार देह का त्याग न करके देह और देह से सम्बद्ध पदार्थों के प्रति अनासक्त एवं निर्लिप्त होकर जो जीवन यात्रा करता है, वह हिंसा या पापकर्मबन्ध नहीं करता, बाह्य रूप से हिंसा होने पर भी वह उस हिंसा में संकल्प से लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार का एक समाधान वेदान्त दर्शन द्वारा भी किया गया है। वहाँ यह बताया गया है, कि देह अपने आप में न हिंसा करता है, न अहिंसा । वह तो जड़ है। आत्मा के संकल्प या अभ्यास से कार्य होता है। और आत्मा जब देह को अपना स्वरूप मानकर प्रवृत्ति करता है, तब उस प्रवृत्ति के द्वारा हिंसा होती है। अतः जीवन के व्यापार से होने वाली हिंसा से अपनी रक्षा के लिए देह को छोड़ने की जरूरत नहीं, जरूरत है देहभाव, देह के साथ आसक्तिजन्य सम्बन्धों को छोड़ने की। देह को निज रूप समझना भी आसक्तिमूलक होने से हिंसा है और उस हिंसा से छूटने के लिए देह को छोड़ना, दुसरी हिंसा करना है। अगर इन दोनों प्रकार की हिंसाओं से छूटना है तो देह से भिन्न अपना जो निज स्वरूप है, जिसे आत्मा पा परमात्मा कुछ भी कहें, उसे पहचान लेना चाहिए और देह के साथ आसक्तिजन्य सम्बन्ध या अहंकर्तृक भाव है, उसे छोड़ देना चाहिए । भगवद् गीता में भी इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है यस्थ नाहंकृतो भावो, बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वाऽपि स इमॉल्लोकान्, न हन्ति न निबध्यते ॥ जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं करता हूँ, अथवा मैं देहरूप हूँ, ऐसा अहंकक भाव नहीं है, तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक इष्टानिष्ट पदार्थों में रागद्वेष से लिप्त नहीं होती अथवा किसी भी प्रवृत्ति में लेपायमान नहीं होती, उस पुरुष के निमित्त से यदि इस संसार के सभी प्राणियों की कदाचित् हिंसा भी हो जाती है, तो भी समझना चाहिए कि न तो वह हिंसा करता है, न पाप से बँधता है । तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष की देह में आसक्ति नहीं है, देहाध्यास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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