SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ तमसो मा ज्योतिर्गमय तो किसी को कष्ट देने, गाली देने या परेशान करने का विचार आते ही, यही समझोगे कि मैं अपने आपको ही कष्ट दे रहा हूँ या गाली दे रहा हूँ । एक हाथ में छुरा लेकर दूसरे हाथ में मारने पर जैसा कष्ट आपको होता है, वैसा ही कष्ट दूसरों को मारने या सताने का आपको होगा। उस आत्मौपम्य दशा में आपको कोई भी प्राणी पराया नहीं लगेगा । न किसी मत, पंथ, विचार, मान्यता, प्रवृत्ति आदि का या रंग, राष्ट्र, जाति, प्रान्त, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय आदि के मनुष्य को देखकर घृणा, द्वेष या वैर उत्पन्न होगा । अतः सूक्ष्म भावजगत की सृष्टि में कोई भेद नहीं रहना चाहिए, पहचानने के लिए नाम रूपादि की दृष्टि से भले ही औपचारिक भेद रहे । इस तरह विश्व के सभी प्राणियों को अपने समान मान कर अपने व्यक्तित्व को विश्वत्व में जब साधक समर्पित कर देगा, तब संसार भर के पापकर्मों, राग-द्वेष- कषायादि विकारों एवं हिंसा आदि पापों से धीरे-धीरे छुटकारा पा जाएगा । उसके हृदय में चोर की तरह बैठे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष, अहंकार और दुनिया भर के विकार तथा हिंसा आदि पाप अपने आप भागने लगेंगे । और तब जो भी प्रवृत्ति होगी, उसमें हिंसा के बदले, अहिंसा की भावना लहलहाएगी। ऐसे साधक को स्वयं प्रतीति होने लगेगी कि मेरे अन्दर अहिंसा का झरना बह रहा है । मान लीजिए, एक जगह घोर संग्राम छिड़ा हुआ है । योद्धागण परस्पर एक दूसरे पर वाणवर्षा कर रहे हैं । परन्तु जिस योद्धा ने अपने वक्षस्थल को मजबूत कवच से ढक रखा है, क्या उसे वे बाण घायल कर सकते हैं ? कदापि नहीं । इसी प्रकार हिंसादि पाप बाणों की चारों ओर से बाणवर्षा हो रही हो, फिर भी जिस साधक ने आत्मौपम्य रूपी कवच अपने जीवन में धारण कर रखा है, उस पर वे हिंसादि पाप का असर कर सकते हैं ? वे दूर से ही स्पर्श करके हट जाते हैं । दूसरा उपाय भगवान महावीर ने बताया कि खाने-पीने, उठनेबैठने, चलने-फिरने, सोने-जागने, बोलने आदि समस्त जीवन व्यापारों में हिंसा होती है, पाप लगता है, इस स्थिति में यह अनिवार्य नहीं है कि शुद्ध अहिंसक बनने के लिए इधर 'करेमि भंते' और 'अप्पाणं वोसिरामि' बोलें और उधर जहर की पुड़िया खा कर सदा के लिए संसार से विदा हो जाएँ । सर्वथा निश्चल रहकर अहिंसा की भूमिका को जीवन में निभाया नहीं जा सकता । आत्मा जब तक संसारावस्था में है, तब तक कोई न कोई जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy