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अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १६६ व्यापार शरीर से करना अनिवार्य होगा । लम्बी तपस्या भी कर ली जाय, तब भी एक दिन पारणा करना होगा। जैन धर्म का दृष्टिकोण यह नहीं है. इस प्रकार जीवन व्यापार में पद-पद पर हिंसादि पाप लगते हैं तो शरीर को छोड़कर निश्चिन्त हो जाओ । जैन धर्म कहता है-पचास, साठ, सत्तर, अस्सी या सौ जितने भी वर्ष की तुम्हारी जिन्दगी है, पूरे शान के साथ व्यतीत करो, उसमें जान-बूझकर कटौती करने की जरूरत नहीं है, किन्तु एक बात का अवश्य ध्यान रखो, प्रत्येक कार्य यतनापूर्वक करो। यदि चलना है तो चलो, पर चलने में यतना रखो, विवेक रखो। यथाप्रसंग खड़े होना हो तो खड़े हो जाओ, पर विवेक के साथ । यदि बंठना हो तो विवेक के साथ बैठो। अगर सोना है, भोजन करना है, बोलना है या और कोई चेष्टा करनी है तो शर्त यही है कि उसे विवेक के साथ करो। फिर पापकर्म कदापि नहीं बधेगे । पापकर्म तो अयतना अथवा अविवेक में है । जहाँ विवेक नहीं है, प्रमाद है, असावधानी है, वहाँ अहिंसा भी नहीं है। विवेक, यतना या अप्रमाद से कार्य करते हुए अगर कभी हिंसा हो भी जाती है तो वह कार्य हिंसा का नहीं होगा। उससे हिंसा जनित पापकर्म का बन्ध नहीं होगा। क्योंकि उसके पीछे हिंसा का संकल्प नहीं है। किसी भी जीव को हानि पहुँचाने, उसे मारने-पीटने, सताने या रौंदने की भावना कतई नहीं है, तो वहाँ हिंसा (द्रव्य से) हो जाने पर भी हिंसाजनित पाप कर्म का बन्ध नहीं होगा। क्योंकि हिंसा राग-द्वषादि परिणामों से होती है, अयत्नाचार से होती है, जो यहाँ नहीं है ।। भगवद्गीता में भी योगी, साधक के सम्बन्ध में यही बात कही गई है- जो युक्त आहार-विहार करता है विविध कार्यों में युक्त चेष्टा करता है, शयन और जागरण भी जिसका युक्त होता है, उस साधक का योग दुःखनाशक होता है ।
प्रश्न यह है कि यह यतना, अप्रमाद, सावधानी, जागरूकता या विवेक क्या चीज है, ऐसा कौन-सा कवच है, जिसे लगाने पर साधक के जीवन में पापकर्म का बन्ध नहीं होता?
१ जय चरे, जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए ।
जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न बधइ ।। -दशवकालिक सूत्र ४/८ २ युक्ताऽऽहारविहारस्य, यूक्तचेष्टस्य कर्मसू ।
युक्तस्वप्नाऽवबोधस्य, योगो भवति दुखहा ॥
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