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अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १६७ बूढ़े दार्शनिक की बात सुन कर राजा की आँखों में चमक आ गई। वह प्रसन्नता से बोल उठा-"धन्यवाद है, भूदेव ! आपने मुझे उत्तम उपाय बताया, अन्यथा मैं तो यों ही चिन्ता में घुट-घुट कर मर जाता। यह कार्य तो मैं आसानी से कर सकूँगा।" और राजा ने दूसरे दिन से ही उस जंगल को साफ करके वहाँ बढ़िया इमारतें बनाने का आदेश दे दिया । बूढ़े दार्शनिक को सम्मानपूर्वक अपने राज्य में रख लिया।
यह कहानी जीवन की एक महान् प्रेरणा दे रही है। जो लोग दुःख, पाप और हिंसा का भयंकर वन देख-देख कर घबराते रहते हैं, रात-दिन चिन्तित होकर एक-दूसरे को कोसते रहते हैं या शरीर छोड़कर पाप या हिंसा से छुटकारा पाने की फिराक में रहते हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि अभी तो हमारे हाथ में जिंदगी के कुछ वर्ष हैं, क्यों नहीं जिंदगी के उन वर्षों में पाप या हिंसा के जंगल को साफ करके उसे आत्मौपम्य के उत्तमोत्तम गुण-प्रासादों से आबाद कर दें।
बढे दार्शनिक की तरह भगवान महावीर भी कहते हैं, अपने जीवन के राजा-मनुष्य से, कि पाप और हिंसा के निवारण के लिए केवल दृष्टि बदलने की जरूरत है, दृष्टि बदलते ही आपकी सृष्टि सुख-शान्ति के पौधों से लहलहा उठेगी।
पहले उपाय के विषय में भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-"हिंसा आदि पाप कर्म कहीं बाहर से नहीं आ रहे हैं, वे न तो परिवार में से आ रहे हैं, न समाज में से और न राष्ट्र में से । उनका मूल तो तुम्हारे अन्दर है, उस मूल स्रोत को तोड़ कर जीवन को उच्च भावों से प्रकाशमान एवं शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन सभी को अपनी आत्मा के समान समझो, यानी संसार की सभी आत्माओं में अपने आपको और अपने अंदर सभी आत्माओं को समझो, तभी तुम आस्रवों और हिंसा आदि पापों के द्वार बन्द कर लोगे और इन्द्रियनिग्रह एवं मनःसंयम कर लोगे और तुम्हारे पापकर्म का बन्धन नहीं होगा।
तात्पर्य यह है कि जब तुम संसार में सभी प्राणियों को आत्मसम समझने लगोगे, विश्व की आत्माओं में अपनी आत्मा मानने लग जाओगे
१–“सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ।
पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ।"
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