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________________ १६६ तमसो मा ज्योतिर्गमय राजमहल के झरोखे में बैठा-बैठा जंगल के घोर दृश्यों को देखता तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे। मृत्यु सामने नाचती देख कर वह रो उठता था। उसे खाना-पीना, राग-रंग, उत्सव आदि कुछ भी नहीं सुहाते थे । राजा को चिन्ता को जान कर सारा राज-परिवार दुःखी रहता था। परन्तु न तो राजा को इस चिन्ता के निवारण का कोई उपाय सूझता था और न ही कोई मंत्री आदि उसे सही उपाय सुझाता था। संयोगवश एक बार उस राजा के राज्य में एक बूढ़ा दार्शनिक आ गया । वह राजा से मिला और उसे अत्यन्त चिन्तातुर देख कर पूछा"राजन् ! आपके पास तो सुख के सभी साधन हैं, किसी बात की कमी नहीं है, फिर आपको क्या चिन्ता है, जिसके मारे इतने परेशान हो रहे हैं ?" राजा ने दीर्घ निःश्वास खींच कर कहा- "भूदेव ! मैं अपनी चिन्ता का कारण आपको क्या बताऊँ ? मृझे दुनियादारी की दष्टि से सभी प्रकार के सुख साधन प्राप्त हैं, परन्तु एक ही चिन्ता है, वह इतनी गहरी है, उसके कारण रात-दिन बेचैन रहता है। बात यह है कि इस राज्य की परम्परा के अनुसार प्रत्येक राजा को पांच वर्ष बाद इस घोर जंगल में छोड़ दिया जाता है, जहाँ हिंस्र जन्तुओं का भक्ष्य बन कर वह समाप्त हो जाता है। मेरा भी पांच वर्ष समाप्त होते ही यही भयंकर हाल होगा, इसे स्मरण करके सिहर उठता हूँ। क्या आप कोई उपाय इस चिन्ता के निवारण का बता सकते हैं ?" बूढ़े दार्शनिक ने यह सुना तो कुछ क्षण सोच कर बोला-"राजन् ! इस चिन्ता से आप इतने क्यों घबराते हैं ? अभी तो आपके हाथ में लगभग साढ़े चार वर्ष हैं । तब तक तो आप बहुत कुछ कर सकते हैं न ?" “हाँ, कर सकता हूँ । पर क्या करूं, कुछ सूझ नहीं रहा है ।" राजा ने अफसोस प्रगट करते हुए कहा । बूढ़ा दार्शनिक बोला-आप एक काम करिये । इस जंगल को साफ करवा दीजिए और यहां रहने के लिए हवा और प्रकाश से परिपूर्ण अच्छे मकान बनवा कर लोगों को बसा दीजिए। चार साल में तो यह काम अच्छी तरह हो जाएगा । जब यहाँ नगर आबाद हो जाए तब आप भी वहाँ जाकर रहने लग जाइए। पांच साल की अवधि के बाद यही जंगल जो आपको भयंकर नरक जैसा लग रहा है, वही चमन जैसा गुलजार नगर होकर आपका स्वागत करेगा। आपकी सारी चिन्ता समाप्त हो जाएगी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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