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________________ अहिंसा का सर्वांगीण स्वरूप १६५ नन्दी सूत्र की टोका में एक दुःखमोचक मत का वर्णन मिलता है। उस मत का यह मन्तव्य था कि इस विराट विश्व में सभी लोग दुःखी हैं। कोई व्यक्ति परिवार से त्रस्त है। कोई व्यक्ति वृद्धावस्था से तंग आ गया है। कोई व्यक्ति भयंकर व्याधि से संत्रस्त है तो कोई व्यक्ति कजदारी से पीड़ित है । किसी को शारीरिक व्याधि है, किसी को मानसिक व्याधि है तो किसी को कौटुम्बिक परेशानी है । तो उसके दुःख निवारण का सबसे सरलतम उपाय यही है कि उसके शरीर को समाप्त कर दिया जाये, ताकि शरीर का अन्त होते ही, उस दुःख का अन्त हो जाये । इस मिथ्यामत के चक्कर में आकर बहुत से लोग अपने शरीर को नष्ट करा देते या कर लेते थे। सुनते हैं, आज पश्चिमी देशों में भी कहीं-कहीं यह प्रथा चल पडी है कि वे अपने परिवार के किसी बूढ़े एवं रोगपीडित या अन्य दुःख से पीड़ित व्यक्ति को जहर का इंजेक्शन देकर खत्म कर देते हैं, कई लोग स्वयं भी आत्महत्या कर लेते हैं । हिन्दुस्तान में भी आत्महत्याएँ प्रतिवर्ष होती हैं। कोई रेल से कट कर, कोई अग्नि-स्नान करके और कोई गले में फांसी डाल कर आत्महत्या कर लेता है । परन्तु इस प्रकार शरीर का नाश करने से पाप, हिंसा या दुःखों का नाश कदापि नहीं होता, वह तो आगे से आगे चलता जाता है। इसलिए दुःखमोचक मत भी अन्धकार से अन्धकार में जाने का रास्ता है। अगर सुख पाना है, हिंसा या पाप से छुटकारा पाना है तो यहीं इसी जीवन में मोर्चा लगाना है और भलीभांति जूझना है।। प्रश्न होता है, चारों तरफ फैले हुए हिंसा और पाप के वातावरण को अकेला व्यक्ति कसे मिटा सकेगा, तथा हिंसा और पाप को अपने पर आने से वह कैसे रोक सकेगा? अगर पापों और हिंसा काण्डों को देख-देख कर यों ही झींकते रहे, कुढ़ते रहे या आत्महत्या का विचार करते रहे तो उससे तो हिंसा, पाप और आर्तध्यान के कारण हिंसा की परम्परा से लिपटते जाओगे, वह गले में सांप की तरह लिपट जाएगी। प्राचीन काल में एक राजा था। जिसके साम्राज्य की सीमा समाप्त होते ही घोर जंगल था। सीमा पर ही उसका राजमहल बना हुआ था। उस राज्य में यह प्रथा थी कि प्रत्येक राजा को पांच वर्ष बाद उस घोर जंगल में छोड़ दिया जाता था, जहाँ भयंकर चीते, बाघ, सिंह या भेड़िये उसे फाड़ कर खा जाते । उसके स्थान पर दूसरा राजा राजगद्दी पर बिठा दिया जाता था। वह राजा इस भयंकर कुप्रथा को जब याद करता और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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