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१६४ तमसो मा ज्योतिर्गमय रहकर अपने शरीर को सुखा डालते थे। इस प्रकार गतानुगतिक बनकर लोग मृत्यु से खेल रहे थे । उनका यह मन्तव्य था कि इस देह को जल्दी से जल्दी छोड़ दें। मर जाएँ। और इस शरीर से वह पाप से छुटकारा पा लें तो बहुत अच्छा है। इस प्रकार अनेक बाल तपस्वी शरीर को यातना देकर शरीर को छोड़ने में धर्म समझते थे। औपपातिक सूत्र में और अन्य अनेक ग्रन्थों में यह वर्णन उपलब्ध है।
भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार के मृत्यु वरण सिद्धान्त का खण्डन किया। उन्होंने यह स्पष्ट उद्घोषणा की कि यह अहिंसा की साधना नहीं है । यदि तुम पाप से मुक्त होना चाहते हो तो वर्तमान के जीवन को ठीक बनाओ । अन्तनिरीक्षण करो। अपने पापों की आलोचना करो। पापों के प्रति पश्चात्ताप व्यक्त करो। प्रायश्चित्त कर आत्मशुद्धि करो । पाप पंक का प्रक्षालन कर देने पर फिर तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं ? नरक जैसे संसार को भी स्वर्गमय बना सकते हो। यदि तम सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र के दिव्य-भव्य प्रकाश को लेकर अगली दुनियाँ में भी प्रवेश करोगे तो वहाँ भी तुम्हें अज्ञान की अधेरी गलियों में भटकना नहीं पड़ेगा। वहाँ भी तुम्हें जीवन पथ को आलोकित करने वाला प्रकाश मिलेगा । वहाँ भी तुम आत्मानन्द की मस्ती में रहोगे । आत्मौपम्य से लहलहाता हुआ जीवन जहाँ भी पहुंचेगा वहाँ वात्सल्य और करुणा की अजस्र धारा प्रवाहित करेगा। वह ऊसर भूमि को भी सरसब्ज बना देगा । इसीलिए तो पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में भगवान महावीर ने कहा
__इहसि उत्तमो भन्ते, पच्छा होहिसि उत्तमो' ।
यही तुम्हारी जीवन ज्योति अन्धकार में भी आलोक फैलाएगी। स्व-पर कल्याण के द्वारा अपने जीवन को उत्तम बनायेगी तो सर्वत्र प्रसन्नता, सहानुभूति और सुख शान्ति प्राप्त होगी। यदि हमने अपने चारों ओर विपत्ति के, अन्धविश्वास के गगनचुम्बी पर्वत-मालाओं को देखकर सर्वत्र पाप के पुञ्ज को निहारकर संसार से पलायन किया, आत्महत्या कर डाली तो हमने अपने आपको गहरे अन्धेरे के गर्त में धकेल दिया है। तो फिर अगले जन्म में भी अन्धकार ही प्राप्त होगा । दुःख और अशान्ति के काले-कजराले बादल ही उमड़ते-घुमड़ते दिखलाई देंगे-"इतो विनष्टिमहतो विष्टिः " यदि यहाँ अन्धकार में डूब गये तो आगे सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार प्राप्त होगा।
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